+ लोभ से होनेवाली हानि -
वनचरभयाद्भावन् दैवाल्लताकुलबालधिः
किल जडतया लोलो बालव्रजेऽविचलं स्थितः।
बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ॥२२३॥
अन्वयार्थ : वन में संचार करने वाले सिंहादि अथवा भील के भय से भागते हुए जिस चमर मृग की पूंछ दुर्भाग्य से लतासमूह में उलझ गई है तथा जो अज्ञानता से उस पूंछ के बालों के समूह में लोभी होकर वहीं पर निश्चलता से खडा हो गया है, वह मृग खेद है कि उक्त सिहादि अथवा व्याध के द्वारा प्राणों से भी रहित किया जाता है। ठीक है- जिनकी तृष्णा वृद्धिंगत है उनके लिये प्रायः करके ऐसी ही विपत्तियां प्राप्त होती हैं॥२२३॥
Meaning : The ‘camara’* deer, running away, in fear of her life, from the chasing lion or the hunter, stops, out of infatuation, as her beautiful tuft of hair on the tail gets entangled in the creepers. And, she gets killed. Alas! Due to her infatuation for the tuft of hair, she is deprived of her life. It is right; excessive infatuation, invariably, brings about calamities.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- लोभी प्राणी को कैसा कष्ट भोगना पडता है, इसका उदाहरण देते हुए यहां यह बतलाया है कि देखो जो चमर मृग दौडने में अतिशय प्रवीण होता है उसकी पूंछ जब व्याधादिक भय से दौडते हुए लताओं में फंस जाती है तब वह बालों के लोभ से मेरी पूंछ के सुन्दर बाल टूट न जावें इस विचार से दौडना बंद करके वहीं पर रुक जाता है और इसीलिये वह व्याधादि के द्वारा केवल उन बालों से ही रहित नहीं किया जाता है, किन्तु उनके साथ प्राणों से भी रहित किया जाता है । इसी प्रकार सभी लोभी जीवों को उक्त लोभ के कारण दुःसह दुःख सहना पडता है ॥२२३॥