
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार साहसी किसान पहिले योग्य भूमि में बीजको बोता है और जब वह अंकुरित हो जाता है तो वह उसकी पशु आदि से रक्षा करता है । इस क्रम से उसके पक जाने पर जब किसान उस चोरों आदि से बचाकर अपने घर पहुंचा देता है तब ही वह अपने परिश्रम को सफल मानकर हर्षित होता है। इसी प्रकार से जो साधु बाह्य में तपश्चरण करता है तथा आगम का अभ्यास भी करता है उसके ये दोनों कार्य उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होकर जब इन्द्रियों की बाधाओं से सुरक्षित रहते हुए आत्मा में स्थिरता को प्राप्त हो जाते हैं तब ही उसे अपना परिश्रम सफल समझना चाहिये । ऐसी अवस्था में ही वह अपने साध्य (मोक्ष) को सिद्ध कर सकता है, अन्यथा नहीं । यहां श्लोक में जो 'धीरधी ' (धीरबुद्धि) विशेषण दिया गया है उसका यह भाव है कि जिस प्रकार किसान बीज बोते समय अधीर होकर यह कभी विचार नहीं करता है कि यदि फसल अच्छी तैयार न हुई तो मुझे बीज की हानि सहनी पडेगी, किन्तु इसके विपरीत वह साहस रखकर फलप्राप्ति की आशा से ही उसे बोता है । उसी प्रकार जो समस्त बाह्य परिग्रह को छोडकर तपश्चरण को स्वीकार करता है उसे भी अधीर होकर कभी ऐसा विचार नहीं करना चाहिये कि जिस तप के फल (स्वर्ग-मोक्ष) की प्राप्ति की आशा से मैं वर्तमान सुख को छोडकर उसे स्वीकार कर रहा हूं वह फल यदि न प्राप्त हुआ तो मुझे व्यर्थ ही कष्ट सहना पडेगा । किन्तु इसके विपरीत उसे यही निश्चय करना चाहिये कि तप का फल जो स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति है वह मुझे प्राप्त होगा ही। तदनुसार उसे साहस के साथ उसकी प्रतीक्षा भी करनी चाहिये ॥२२९॥ |