
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो बुद्धिमान् मनुष्य रोग के भय से भोजन का परित्याग करता है वह कभी औषधि को अधिक मात्रामें पीकर उसी रोग को निमंत्रण नहीं देता है । और यदि वह ऐसा करता है तो फिर वह बुद्धिमान् न कहला कर मूर्ख ही कहा जावेगा। इसी प्रकार जो बुद्धिमान् मनुष्य चेतन (स्त्री-पुत्रादि) और अचेतन (धन-धान्यादि) पदार्थो से मोह को छोडकर महाव्रतों को स्वीकार करता है वह कभी संयम के उपकरणस्वरूप पीछी एवं कमण्डलु आदि के विषय में अनुराग को नहीं प्राप्त होता है। और यदि वह ऐसा करता है तो समझना चाहिये कि वह अतिशय अज्ञानी है। कारण कि इस प्रकार से उसका परिग्रह को छोडकर मुनिधर्म को ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे साधो! जब तू स्त्री आदि समस्त बाह्य वस्तुओं से अनुराग छोड चुका है तो फिर पीछी कमण्डलु आदि के विषय में भी व्यर्थ में अनुराग न कर । अन्यथा तू इस लोक के सुख से तो रहित हो ही चुका है, साथ ही वैसा करने से परलोक के भी सुख से वंचित हो जावेगा॥२२८॥ |