+ संयम के उपकरणों से भी अनुराग करने का निषेध -
रम्येषु वस्तुवनितादिषु वीतमोहो
मुह्येद् वृथा किमिति संयमसाधनेषु ।
धीमान् किमामयभयात्परिहृत्य भुक्ति
पीत्वौषधिम् व्रजति जातुचिदप्यजीर्णम् ॥२२८॥
अन्वयार्थ : हे भव्य! जब तू रमणीय बाह्य अचेतन वस्तुओं एवं चेतन स्त्री-पुत्रादि के विषय में मोह से रहित हो चुका है तब फिर संयम के साधनभूत पीछी-कमण्डल आदि के विषय में क्यों व्यर्थ में मोह को प्राप्त होता है ? क्या कोई बुद्धिमान् रोग के भय से भोजन का परित्याग करता हुआ औषधि को पीकर कभी अजीर्ण को प्राप्त होता है? अर्थात् नहीं प्राप्त होता है॥२२८॥
Meaning : O worthy soul! When you have become delusion-free in respect of attractive external objects – inanimate and animate (the wife, the son, etc.) – why do you then unnecessarily delude yourself in respect of your instruments of restraint, the feather-whisk (picchī) and the water-pot (kamaõdalu)? Does any wise man, who takes no food for fear of disease, ever provoke indigestion by intake of (too much) medicine?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो बुद्धिमान् मनुष्य रोग के भय से भोजन का परित्याग करता है वह कभी औषधि को अधिक मात्रामें पीकर उसी रोग को निमंत्रण नहीं देता है । और यदि वह ऐसा करता है तो फिर वह बुद्धिमान् न कहला कर मूर्ख ही कहा जावेगा। इसी प्रकार जो बुद्धिमान् मनुष्य चेतन (स्त्री-पुत्रादि) और अचेतन (धन-धान्यादि) पदार्थो से मोह को छोडकर महाव्रतों को स्वीकार करता है वह कभी संयम के उपकरणस्वरूप पीछी एवं कमण्डलु आदि के विषय में अनुराग को नहीं प्राप्त होता है। और यदि वह ऐसा करता है तो समझना चाहिये कि वह अतिशय अज्ञानी है। कारण कि इस प्रकार से उसका परिग्रह को छोडकर मुनिधर्म को ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे साधो! जब तू स्त्री आदि समस्त बाह्य वस्तुओं से अनुराग छोड चुका है तो फिर पीछी कमण्डलु आदि के विषय में भी व्यर्थ में अनुराग न कर । अन्यथा तू इस लोक के सुख से तो रहित हो ही चुका है, साथ ही वैसा करने से परलोक के भी सुख से वंचित हो जावेगा॥२२८॥