
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार दीपक स्नेह (तेल) से सम्बन्ध रखकर निकृष्ट काले कज्जल को उत्पन्न करता है उसी प्रकार जो साधु स्नेह से सम्बन्ध रखता है- हृदय में बाह्य वस्तुओं से अनुराग करता है-वह ज्ञान और चारित्र से युक्त होता हुआ भी उक्त अनुराग के वश होकर कज्जल के समान मलिन पाप कर्मों को उत्पन्न करता है । अतएव उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती है । हां, यदि वह उक्त स्नेह से रहित होकर- राग-द्वेष को छोडकर- उन ज्ञान और चारित्र को धारण करता है तो फिर वह चूंकि उक्त मलिन कर्मों को नहीं बांधता है- उनकी केवल निर्जरा ही करता है- अतएव वह लोक का वंदनीय हो जाता है। दीपक भी जब स्नेह से रहित हो जाता है- उसका तेल जलकर नष्ट हो जाता है- तब वह कज्जलरूप कार्य को नहीं उत्पन्न करता है ॥२३१॥ |