
शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च षट् त्रयम् ।
हितमाद्यमनुष्ठेयं शेषत्रयमथाहितम् ॥२३९॥
अन्वयार्थ : शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप तथा सुख और दुख ; इस प्रकार ये छह हुए । इन छहों के तीन युगलों से आदि के तीन- शुभ, पुण्य और सुख- आत्मा के लिये हितकारक होने से आचरण के योग्य हैं । तथा शेष तीन- अशुभ, पाप और दुख- अहित-कारक होने से छोडने के योग्य हैं॥२३९॥
Meaning : Auspicious and inauspicious , merit and demerit , and happiness and misery – these are six. The first of each of these three pairs – auspicious , merit , and happiness – are beneficial for the soul and worth accepting. The remaining three – inauspicious , emerit , and misery – are harmful for the soul and worth rejecting.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनपूजनादिरूप शुभ क्रियाओं के द्वारा पुण्य कर्म का बन्ध होता है और उस पुण्य कर्म के उदय में प्राप्त होने पर उससे सुख की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत हिंसा एवं असत्यसंभाषणादिरूप अशुभ क्रियायों के द्वारा पाप का बन्ध होता है और उस पाप कर्म के उदय में प्राप्त होने पर उससे दुख की प्राप्ति होती है । इसीलिये उक्त छह में से शुभ, पुण्य और सुख ये तीन उपादेय तथा अशुभ, पाप और दुख ये तीन हेय हैं ॥२३९॥
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