
भावार्थ :
विशेषार्थ-चार्वाक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं । उनका अभिप्राय है कि जिस प्रकार कोयला, अग्नि, जल एवं वायु आदि के संयोग से जो प्रबल वाष्प उत्पन्न होता है वह भारी रेल गाडी आदि के भी चलाने में समर्थ होता है, उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतों के संयोग से वह शक्ति उत्पन्न होती है जो शरीर को गमनागमनादि क्रियाओं एवं पदाथों के जानने-देखने आदि में सहायक होती है । उसे ही चेतना शब्द से कहा जाता है । और वह जब तक उन भूतों का संयोग रहता है तभी तक (जन्म से मरण पर्यन्त) रहती है, न कि उससे पूर्व और पश्चात् भी उनके इस मत के निराकरणार्थ यहां श्लोक में सबसे पहिले 'अस्त्यात्मा' कहकर यह प्रमाणित किया है कि आत्मा नाम से प्रसिद्ध कोई वस्तु अवश्य है । यदि आत्मा न होता तो बहुतों को जो अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो जाता है वह नहीं होना चाहिये। इसके अतिरिक्त भूत-पिशाचादिकों को भी अपने और दूसरों के पूर्वभवों को बतलाते हुए देखा जाता है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा नाम की कोई वस्तु अवश्य है जो विवक्षित जन्म के पूर्व में भी था और मरण के पश्चात् भी रहती है। इसी प्रकार सांख्य आत्मा को स्वीकार करके भी उसे सर्वदा शुद्ध-कर्म से अलिप्त मानते हैं । उसके निराकरणार्थ यहां उस आत्मा को अनादिबन्धनगत निर्दिष्ट किया है। इसका अभिप्राय यह है कि शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा यद्यपि प्रत्येक आत्मा कर्म से अलिप्त होकर अपने ही शुद्ध चैतन्यरूप द्रव्य में अवस्थित है। स्वभाव से एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पडता है । जैसे- सुवर्ण में यदि तांबे का मिश्रण भी हो तो भी सुवर्णपरमाणु सुवर्णस्वरूप से और तांबे के परमाणु तत्स्वरूप से ही अपनी पृथक् पृथक् स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। यही कारण है जो सुनार के द्वारा उन दोनों को पृथक् कर दिया जाता है। किन्तु यह द्रव्य के उस शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा ही सम्भव है, न कि वर्तमान अशुद्ध पर्याय की अपेक्षा भी। पर्याय की अपेक्षा तो संसारी आत्मा अनादि सन्तति स्वरूप से आनेवाले नवीन नवीन कर्मों के बन्ध से सम्बद्ध ही रहता है । और जब वह पर्याय की अपेक्षा कर्मबन्धन में बद्ध होकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वभाव को छोडता हुआ राग-द्वेषादिरूप विभाव में परिणत होता है तब उसको अपने शुद्ध स्वभाव में स्थिर रखने के लिये प्रयत्न करना भी- तपश्चरण आदि करना भी उचित है । यदि वह द्रव्य के समान पर्याय से भी शुद्ध हो तो फिर तपश्चरणादि व्यर्थ ठहरते हैं। अतएव यही समझना चाहिये कि वह आत्मा जिस प्रकार स्वभाव से शुद्ध है उसी प्रकार पर्याय की अपेक्षा वह अशुद्ध भी है । अब जब वह पर्याय से अशुद्ध या कर्मबन्ध से सहित है तब यह प्रश्न उठता है कि कब से वह कर्मबन्धन में बद्ध है तथा किस प्रकार वह उससे छूट सकता है । इसके उत्तर में यहां यह बतलाया है कि वह अनादि से उस कर्मबन्धन में बद्ध है । उसके इस कर्मबन्ध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं । इनमें पूर्व पूर्व कारण के रहने पर उत्तर उत्तर कारण अवश्य रहते हैं। जैसे- यदि मिथ्यात्व है तो आगे के अविरति आदि चार कारण अवश्य रहेंगे, इसी प्रकार यदि अविरति है तो उसके आगे के प्रमाद आदि तीन कारण अवश्य रहेंगे। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये। यही बात यहां प्रकारान्तर से प्रकृत श्लोक में निर्दिष्ट की गई है। यह बन्ध की परम्परा बीज और अंकुर के समान अनादि से है- जिस प्रकार बीज से अंकुर व उससे पुनः बीज उत्पन्न होता है, इस प्रकार से जैसे इनकी परम्परा अनादि है उसी प्रकार उपर्युक्त मिथ्यात्वादि से कर्मबन्ध और फिर उससे पुनः मिथ्यात्वादि उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार यह बन्धपरम्परा भी अनादि है। परन्तु जिस प्रकार बीज या अंकुर में से किसी एक के नष्ट हो जाने पर वह अनादि भी बीजांकुर की परम्परा नष्ट हो जाती है उसी प्रकार उन मिथ्यात्वादि के विपरीत क्रम से सम्यग्दर्शन, व्रत, दक्षता (अप्रमाद), अकलुषता (अकषाय) और अयोग अवस्था के प्राप्त हो जाने पर वह अनादि बन्धपरम्परा भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से वह आत्मा मुक्तिअको प्राप्त करता ॥२४१॥ |