+ शरीरादि से प्रीति ही आपत्ति -
ममेदमहमस्येति प्रीतिरीतिरिवोत्थिता।
क्षेत्रे क्षेत्रीयते यावत्तावत्काशा तपःफले ॥२४२॥
अन्वयार्थ : 'यह मेरा है और मैं इसका हूं' इस प्रकार का अनुराग जबतक ईति के समान खेत (शरीर) के विषय में उत्पन्न होकर खेत के स्वामी के समान आचरण करता है तब तक तप के फलभूत मोक्ष के विषय में भला क्या आशा की जा सकती है? नहीं की जा सकती है॥२४२॥
Meaning : Infatuation for the body – ‘the body is mine and I am its’ – is like the calamity (īti) that inflicts the harvest. So long as such infatuation for the body persists in the soul, what hope is there for its liberation (mokÈa), the fruit of austerities (tapa)?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, शलभ (टिड्डी), चूहा, तोता, स्वचक्र और परचक्र (अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभा मूषका शुकाः । स्वचक्र परचक्र व सप्तैता ईतयः स्मृताः ॥ ) ये सात ईति मानी जाती हैं। जिस प्रकार इन ईतियों में से कोई भी ईति यदि खेत के मध्यमें उत्पन्न होती है तो वह उस खेत को (फसल को) नष्ट कर देती है। इससे वह कृषक कृषी के फल (अनाज) को नहीं प्राप्त कर पाता है। इसी प्रकार तपस्वी को यदि शरीर के विषय में अनुराग है और इसीलिये यदि वह यह समझता है कि यह शरीर मेरा है और मैं इसका स्वामी हूं तो उसका वह अनुराग ईति के समान उपद्रवकारी होकर तप के फल को- मोक्ष को- नष्ट कर देता है ॥२४२॥