+ कर्मोदय होने पर मुनिराज को खेद नहीं होता -
आकृष्योग्रतपोबलैरुदयगोपुच्छं यदानीयते
तत्कर्म स्वयमागतं यदि विदः को नाम खेदस्ततः ।
यातव्यो विजिगीषुणा यदि भवेदारम्भकोऽरिः स्वयं
वृद्धिः प्रत्युत्त नेतुरप्रतिहता तद्विग्रहे कः क्षयः ॥२५७॥
अन्वयार्थ : जो विद्वान् साधु पीछे उदयमें आने योग्य कर्मस्वरूप उदयगोपुच्छ को- गाय की पूंछ के समान उत्तरोत्तर हीनता को प्राप्त होने वाले कर्मपरमाणुओं को- तीव्र तप के प्रभाव से स्थिति का अपकर्षण करके वर्तमान में उदय को प्राप्त कराता है वह कर्म यदि स्वयं ही उदय को प्राप्त हो जाता है तो इससे उस साधु को क्या खेद होनेवाला है ? कुछ भी नहीं । ठीक है- जो सुभट विजय की अभिलाषा से शत्रु के ऊपर आक्रमण करने के लिये उद्यत हो रहा है उसका वह शत्रु यदि स्वयं ही आकर युद्ध प्रारम्भ कर देता है तो इससे उस सुभट को बिना किन्हीं विघ्न-बाधाओं के अपने आप विजय प्राप्त होती है । वैसी अवस्था में उसके साथ युद्ध करने में भला उसकी क्या हानि होनेवाली है ? कुछ भी नहीं ॥२५७॥
Meaning : The ascetic, through severe austerities, brings to premature fruition karmas that have already become subtle, like the tail of the cow that gets thin at the end. What grief is there for the ascetic if karmas get to fruition on their own? What is the loss for the great warrior who is proceeding to wage a war against his foe if the foe himself comes in front of him to fight the war?

  भावार्थ 

भावार्थ :