+ मुनिराज की ध्यानस्थ अवस्था -
एकाकित्वप्रतिज्ञाः सकलमपि समुत्सृज्य सर्वसहत्वाद्
भ्रान्त्याचिन्त्याः सहायं तनुमिव सहसालोच्य किंचित्सलज्जाः ।
सज्जीभूताः स्वकार्ये तदपगमविधिम् बद्धपल्यङ्कबन्धाः
भ्यायन्ति ध्वस्तमोहा गिरिगहनगुहागुह्यगेहे नृसिंहाः ॥२५८॥
अन्वयार्थ : जिन योगियों ने सब परिषहों के सहने में समर्थ होते हुए सब ही बाह्याभ्यंतर परिग्रह को छोडकर एकाकी (असहाय) रहने की प्रतिज्ञा कर ली है, जिनके विषय में भ्रांति कुछ सोच ही नहीं सकती है अर्थात् जो सब प्रकार की भ्रांति से रहित हैं, जो शरीर जैसे सहायक की सहसा समीक्षा करके कुछ लज्जा को प्राप्त हुए हैं- अर्थात् जो वस्तुतः असहायक शरीर को अब तक सहायक समझने के कारण कुछ लज्जा का अनुभव करते हैं,तथा जो अपने कार्य में (मुक्तिप्राप्ति में) तत्पर हो चुके हैं; वे मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी योगी मोह से रहित होकर पर्वत, भयानक वन और गुफा जैसे एकान्त स्थान में पल्यंक आसन से स्थित होते हुए उस शरीर के नष्ट करने के उपाय का - परमात्मा के स्वरूप या रत्नत्रय का- ध्यान करते हैं ॥२५८॥
Meaning : The supreme ascetics, able to endure various afflictions, who have vowed to become independent by renouncing all external and internal possessions; who are rid of misgivings; who feel embarrassed having earlier erroneously considered their unhelpful body as helpful; who are engaged in attainment of their goal (of liberation) – such valiant supreme ascetics, like lion among men, rid of delusion, sitting in seclusion in a posture called ‘palyańkāsana’ on a mountain, in a dreadful forest, or in a cave, meditate on the way to get rid of the body, on the nature of the pure-soul, or on the Three Jewels (ratnatraya).

  भावार्थ 

भावार्थ :