
सुखं दुःखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात्
कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् ।
उदासीनस्तस्य प्रगलति पुराणं न हि नवं
समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव ॥२६३॥
अन्वयार्थ : संसार में पूर्वकृत कर्म के उदय से जो भी सुख अथवा दुख होता है उससे प्रीति क्यों और खेद भी क्यों, इस प्रकार के विचार से यदि जीव उदासीन होता है-राग और द्वेष से रहित होता है तो उसका पुराना कर्म तो निर्जीर्ण होता है और नवीन कर्म निश्चय से बन्ध को प्राप्त नहीं होता है । ऐसी अवस्था में यह संवर और निर्जरा से सहित जीव अतिशय निर्मल मणि के समान प्रकाशमान होता है- स्व और पर को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान से सुशोभित होता है ॥२६३॥
Meaning : When the man becomes indifferent to the fruits, in form of happiness and misery, of the past karmas, he neither relishes nor detests these fruits. As he becomes rid of attachment and aversion , his past karmas fall off and fresh karmas do not bind him. Equipped thus with stoppage and dissociation of karmas, he shines forth like a pristine jewel; he is adorned with perfect-knowledge – omniscience – that illumines the self and the others.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- पूर्व में जिस शुभ अथवा अशुभ कर्म का बन्ध किया है उसका उदय आने पर सुख अथवा दुख प्राणी को प्राप्त होता ही है । किंतु जो अज्ञानी जीव है वह चूंकि पुण्य के फलस्वरूप सुख में तो अनुराग करता है और पाप के फलभूत दुख में द्वेष करता है, इसीलिये उसके पुनः नवीन कर्मों का बन्ध होता है । परन्तु जो जीव विवेकी है वह यह विचार करता है कि पूर्वकृत पुण्य के उदय से यह जो सुख प्राप्त हुआ है वह अस्थायी है- सदा रहने वाला नहीं है। इसलिये उसमें अनुराग करना उचित नहीं है । इसी प्रकार दुख पापकर्म के उदय से होता है । यदि पूर्व में पापकर्म का संचय किया है तो उसके फल को भोगना ही पडेगा। फिर भला उसमें खेद क्यों ? इस प्रकार के विचार से विवेकी जीव सुख और दुख में चूंकि हर्ष और विषाद से रहित होता है, अतएव उसके पुनः नवीन कर्म का बन्ध नहीं होता है । साथ ही उसके पूर्वसंचित कर्म की निर्जरा भी होती है । इस प्रकार से वह संवर एवं निर्जरा से युक्त होकर समस्त कर्मों से रहित होता हुआ मुक्त हो जाता है ॥२६३॥
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