+ यतियों की वृत्ति आश्चर्य की भूमि -
सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन्
ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा ।
पुनरपि तदभावे प्रज्वलत्युज्ज्वलः सन्
भवति हि यतिवृत्तं सर्वथाश्चर्यभूमिः ॥२६४॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण निर्मल ज्ञान (केवलज्ञान) शरीररूप गृह में प्रगट होकर जिस प्रकार लकडी में प्रगट हई अग्नि निर्दयतापूर्वक उस लकडी को भस्म करके उसके अभाव में फिर भी निर्धूम जलती रहती है उसी प्रकार वह भी शरीर को पूर्णतया नष्ट करके उसके अभाव में भी निर्मलतया प्रकाशमान रहता है। ठीक है- मुनियों का चरित्र सब प्रकार से आश्वर्यजनक है ॥२६४॥
Meaning : The perfect and pristine knowledge – omniscience (kevalajñāna) – enters its dwelling, the body of the ascetic. Like the fire burns up the wood completely but still keeps on burning without smoke (the charcoal fire), the fire of omniscience mercilessly burns up completely the body of the ascetic but still keeps on emitting sparkling light. It is right; the conduct of the ascetics is a land of wonders, all-around.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार लकडी में लगी हुई अग्नि जबतक वह लकडी शेष रहती है तबतक तो जलती ही है, किन्तु उसके पश्चात् भी- उक्त लकडी के निःशेष हो जाने पर भी- वह निर्मलता से जलती ही रहती है, उसी प्रकार शरीर में प्रगट हुआ केवलज्ञान जबतक वह शरीर रहता है तब भी- आर्हन्त्य अवस्था में भी- प्रकाशित रहता है तथा उस शरीर के नष्ट हो जाने पर सिद्धावस्था में भी वह स्पष्टतया अनन्त काल तक प्रकाशित रहता है । यह क्षीणकषाय एवं अयोगी जिनके उस यथाख्यातचारित्र का प्रभाव है जो छद्मस्थ जीवों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाला है ॥२६४॥