णमिदूण वड्ढमाणं, परमप्पाणं जिणं तिसुद्धेण ।
वोच्छामि रयणसारं, सायारणयारधम्मीणं ॥1॥
नत्वा वर्धमानं परमात्मानं जिनं त्रिशुद्ध्या ।
वक्ष्ये रत्नसारं सागार-अनगारधर्मिणाम्॥
अन्वयार्थ : मन-वचन-काय की त्रिशुद्धि के साथ परमात्मा जिन वर्धमान स्वामी को नमन करके सागार व अनगार धर्म वालों के लिए रयणसार ग्रन्थ का कथन कर रहा हूँ ॥1॥