पुव्वं जिणेहि भणिदं, जहठ्ठिदं गणहरमहि वित्थरिदं ।
पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लदि जो हु सद्दिठ्ठी ॥2॥
पूर्वं जिनै: भणितं यथास्थितं गणधरै: विस्तरितम् ।
पूर्वाचार्यक्रमजं तत् कथयति य: खलु सद्दृष्टि:॥
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह, पूर्व में जिनेन्द्र द्वारा कथित, गणधरों द्वारा विस्तार से ग्रथित तथा पूर्वाचार्यों की क्रमिक परम्परा से जो प्राप्त है, उसका कथन करता है ॥2॥