ण वि जाणदि कज्ज्मकज्ज्ं, सेयमसेयं य पुण्णपावं हि ।
तच्चमतच्चं धम्ममधम्मं सो सम्मउम्मुक्को ॥40॥
नापि जानाति कार्यमकार्यम्, श्रेयोऽश्रेयश्च पुण्यपापं हि ।
तत्त्वमतत्त्वं धर्ममधर्मं स सम्यक्त्व-उन्मुक्त:॥
अन्वयार्थ : जो लोग सम्यक्त्व से रहित होते हैं, वे लोग कार्य-अकार्य,श्रेय-अश्रेय,तत्त्व-अतत्त्व, धर्म-अधर्म को नहीं जानते हैं ॥40॥