तणुकुठ्ठी कुलभंगं कुणदि जहा मिच्छमप्पणो वि तहा ।
दाणाइसुगुणभंगं गदिभंगं मिच्छमेव हो कठ्ठं ॥48॥
तनुकुठी कुलभङ्गं करोति यथा मिथ्यात्वमात्मनोऽपि तथा ।
दानादिसुगुणभङ्गं गतिभङ्गं मिथ्यात्वमेव अहो कष्टम्॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार शरीर में कोढ़ हो जाने पर, व्यक्ति अपने कुल का हीभंगकर लेता है (अर्थात् अपने कुल के लोगों से स्वत: परित्यक्त होकर कुलहीन हो जाताहै), उसी प्रकार मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति अपने आत्मीय (गुणों के) कुल को भग्नकर देता है,दान आदि सद्गुणों का भी नाश कर लेता है और सद्गतियों का भी नाशकर लेता है । अहो!मिथ्यात्व (कितना) कष्टदायी है! ॥48॥