हीणादाणवियारविहीणादो बाहिरक्खसोक्खं हि ।
किं तजियं किं भजियं, किं मोक्खं ण दिठ्ठं जिणुद्दिठ्ठं ॥81॥
हानादानविचारविहीनत्वात् बाह्याक्षसौख्यं हि ।
किं त्याज्यं किं भाज्यं किं मोक्षो न दृष्ट:, जिनोद्दिष्टम् ॥
अन्वयार्थ : चूँकि (अज्ञानी) जीव के हेय व उपादेय के विवेक का अभाव होताहै, इसलिए (जीव) बाह्य पदार्थों में सुख मानता है । वह नहीं जानता कि क्या त्याज्य है,क्या सेवनीय है और मोक्ष क्या है । ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥81॥