सम्मत्त विणा रुई भत्ति विणा दाणं दया विणा धम्मं ।
गुरुभत्ति विणा तवगुणचारित्तं णिप्फलं जाण ॥80॥
सम्यक्त्वं विना रुचिं, भकि्ं विना दानं, दयां विना धर्मम् ।
गुरुभकि्ं विना तपोगुणचारित्रं निष्फलं जानीहि ॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व के बिना रुचि (श्रद्धा) को, भक्ति के बिना दान को, दया के बिना धर्म कोऔर (उसी तरह) गुरु-भक्ति के बिना तप, गुण (मूलगुणादि) व चारित्र को निष्फल जानें ॥80॥