कम्म ण खवेदि परबह्म ण जाणदि सम्म-उम्मुक्को ।
अत्थ ण तत्थ ण जीवो लिंगं घेत्तूण किं करमदि ॥83॥
कर्म न क्षपयति, परब्रह्म न जानाति सम्यक्त्व-उन्मुक्त: ।
अत्र न तत्र न जीव:, लिङ्गं गृहीत्वा किं करोति?
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दर्शन से रहित है और परब्रह्म (परमात्मा) को नहीं जानता,वह कर्म का क्षय नहीं करता । वह न यहाँ का है और न वहाँ का (उसका यह लोक भीबिगड़ा और परलोक भी) । वह (द्रव्य) लिङ्ग को धारण करके (भी) क्या करेगा? ॥83॥