अप्पाणं पि ण पेच्छदि ण मुणदि ण वि सद्दहदि ण भावेदि ।
बहुदुक्खभारमूलं लिंगं घेत्तूण किं करमदि? ॥84॥
आत्मानमपि न प्रेक्षते न जानाति नापि श्रद्दधाति न भावयति ।
बहुदु:खभारमूलं लिङ्गं गृहीत्वा किं करोति?
अन्वयार्थ : जो (जीव) आत्मा का निरीक्षण नहीं करता, न ही आत्मा को जानताहै, न ही श्रद्धान करता है और भावना भी नहीं भाता, तो फिर वह अत्यन्त दु:ख-भार केकारण द्रव्यलिङ्ग को धारण करके (भी) क्या करेगा? ॥84॥