
इंदियविसयसुहादिसु मूढमदी रमदि ण लहदि तच्चं ।
बहुदुक्खमिदि ण चिंतदि, सो चेव हवेदि बहिरप्पा ॥129॥
इन्द्रियविषयसुखादिषु मूढमति: रमते न लभते तत्त्वम् ।
बहुदु:खमिति न चिन्व्यति स चैव भवति बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो अज्ञानी जीव इन्द्रिय-विषयों के सुख में रम जाता है और यह विचार नहीं करताकि ये इन्द्रिय-विषय बहुत दु:खदायी हैं और जो तत्त्व को भी ग्रहण नहीं कर पाता, वह'बहिरात्मा' ही होता है ॥129॥