सम्मादिठ्ठी णाणी अक्खाण सुहं कहं पि अणुहवदि ।
केणावि ण परिहरणं वाहीण विणासणठ्ठ भेसज्ज्ं ॥135॥
सम्यग्दृष्टि: ज्ञानी अक्षाणां सुखं कथमपि अनुभवति ।
केनापि न परिहरणं व्याधिविनाशनार्थं भेषजम् ॥
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दृष्टि व ज्ञानी है, वह किसी प्रकार (परवश होकर, अनिच्छासे) इन्द्रियों के सुख का अनुभव उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कोई भी (रोगी) रोगदूर करने के लिए औषधि नहीं छोड़ता ॥135॥