
मलमुत्तघडव्व चिरंवासिद दुव्वासणं ण मुंचेदि ।
पक्खालिदसम्मत्तजलो य णाणमियेण पुण्णो वि ॥134॥
मलमूत्रघट इव चिरवासितां दुर्वासनां न र्मुति ।
सम्यक्त्वजलप्रक्षालित: च ज्ञानामृतेन पूर्णोऽपि ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार मल-मूत्र का घड़ा चिरकाल से दुर्गन्धित होने के कारणअपनी दुर्वासना को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपी जल से धोने पर भीज्ञानामृत से पूर्ण यह आत्मा दुर्वासना को नहीं छोड़ पाती ॥134॥