
पिच्छे संथरणे इच्छासु लोहेण कुणदि ममयारं ।
यावच्च अट्टरुद्दं, ताव ण मुंचेदि ण हु सोक्खं ॥157॥
पिच्छिकायां संस्तरम इच्छासु लोभेन करोति ममकारम् ।
यावच्च आर्तरौद्रे तावन्न मुच्यते न खलु सौख्यम् ॥
अन्वयार्थ : इनमें, तथा इच्छाओं में, लोभवश ममत्व करता है, और जब तक उसेआर्त या रौद्र ध्यान रहता है, तब तक वह मुक्त नहीं होता और न ही उसे सुख मिलता है ॥157॥