ग्रन्थ : धर्म विषयक जिज्ञासा धर्मात्किलैष जन्तुर्भवति सुखी जगति स च पुनर्धर्मः ।
धर्म से यह प्राणी जगत् में सुखी होता है । उस धर्म का क्या स्वरूप है ? कितने भेद हैं ? तथा उसका क्या उपाय और क्या फल है ॥1॥किरूपः किंभेदः किमुपायः किंफलश्च जायेत ॥1॥ धर्म का स्वरूप और भेद यस्मादभ्युदयः पुंसां निःश्रेयसफलाश्रयः ।
जिससे मनुष्यों को ऐसे अभ्युदय की प्राप्ति होती है, जिसका फल मोक्ष है उसे आम्नाय के ज्ञाता धर्माचार्य धर्म कहते हैं ॥2॥वदन्ति विदिताम्नायास्तं धर्म धर्मसूरयः ॥2॥ स प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मा गृहस्थेतरगोचरः ।
वह धर्म प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप है । मोक्ष के कारणों में लगने को प्रवृत्ति और संसार के कारणों से बचने को निवृत्ति कहते हैं । वह धर्म गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म के भेद से दो प्रकार का है ॥3॥प्रवृत्तिर्मुक्तिहेती स्यानिवृत्तिर्भवकारणात् ॥3॥ संसार और मोक्ष के कारणों का स्वरूप अब प्रश्न यह है कि मुक्ति का कारण क्या है और संसार का कारण क्या है ? तथा गृहस्थों का धर्म क्या है और मुनियों का धर्म क्या है ? - सम्यक्त्वज्ञानचारित्रत्रयं मोक्षस्य कारणम् ।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्ष के कारण हैं । तथा मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग संसार के कारण हैं ॥4॥संसारस्य च मीमांस्यं मिथ्यात्वादिचतुष्टयम् ॥4॥ सम्यक्त्वं भावनामाहुयुक्तियुक्तेषु वस्तुषु ।
युक्तियुक्त वस्तुओं में दृढ़ आस्था का होना सम्यग्दर्शन है । और मोह, सन्देह तथा भ्रम से रहित ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है ॥5॥मोहसंदेहविभ्रान्तिवर्जितं ज्ञानमुच्यते ॥5॥ कर्मादाननिमित्तायाः क्रियायाः परमं शमम् ।
जिन कामों के करने से कर्मोका बन्ध होता है उन कामों के न करने को चारित्र में चतुर आचार्य सम्यकचारित्र कहते हैं ॥6॥चारित्रोचितचातुर्याश्चारुचारित्रमूचिरे ॥6॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रविपर्ययपरं मनः ।
तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र के विषय में विपरीत मानसिक प्रवृत्ति को सर्वविद् आचार्यों ने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र कहा है ॥7॥मिथ्यात्वं नृषु भाषन्ते सूरयः सर्ववेदिनः ॥७॥ मुक्ति के विषय में मतान्तर अत्र दुरागमवासनाविलासिनीवासितचेतसां प्रवर्तितप्राकृतलोकानोकहोन्मूलनसमयस्रोतसां सदाचाराचरणचातुरीविदूरवर्तिनां परवादिनां मुक्तरुपाये कोये च बहुवृत्तयः खलु प्रवृत्तयः। तथाहि-सकलनिष्कलाप्तप्राप्तमन्त्रतन्त्रापेक्षदीक्षालक्षणाच्छद्धामात्रानुसरणान्मोक्षः इति सैद्धान्तवैशेषिकाः, द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायान्त्यविशेषाभावाभिधानानां पदार्थानां साधर्म्यवैधावबोधतन्त्राक्षानमात्रात्' इति तार्किकवैशेषिकाः, 'त्रिकालभस्मोद्धूलनेज्यागडुकप्रदानाप्रदक्षिणोकारणात्मविडम्बनादिक्रियाकाण्डमात्राधिष्ठानादनुष्ठानात्' इति पाशुपताः, 'सर्वेषु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशङ्कचित्ताद् वृत्तात्' इति कुलाचार्यकाः। तथा च त्रिकमतोक्तिः-'मदिरामोदमेदुरवदनस्तरसरसप्रसन्नहृदयः सव्यपार्श्वविनिवेशितशक्ति शक्तिमुद्रासनधरः स्वयमुमामहेश्वरायमाणः कृष्णया शर्वाणीश्वरमाराधयेदिति / प्रकृतिपुरुषयोविवेकमतेः ख्यातेः' इति सांख्याः, 'नैरात्म्यादिनिवेदितसंभावनातो भावनातः' इति दशबल शिष्याः, 'अङ्गाराजनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्यै चित्तस्य न कुतश्चिद्विशुद्धचित्तवृत्तिः' इति जैमिनीयाः, 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते ततः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावे कस्यासौ मोक्षः' इति समवाप्तसमस्तनास्तिकाधिपत्या बार्हस्पत्याः, 'परमब्रह्मदर्शनवशादशेषभेदसंवेदनाविद्याविनाशात्' इति वेदान्तवादिनः, अन्य मतवाले मुक्ति का स्वरूप तथा उपाय अलग-अलग बतलाते हैं।
जिस तरह जन्मान्ध मनुष्य हाथी के विषय में विचित्र कल्पनाएँ कर लेते हैं, उसी तरह परमार्थ को न जानने वाले मिथ्यामतवादियों ने अन्य भी अनेक मत कल्पित कर रखे हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ॥12॥ (इस प्रकार मोक्ष के विषय में अन्य मतों को बतला कर आचार्य विचारते हैं) प्रायः संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् ।
जैसे नकटे मनुष्य को स्वच्छ दर्पण दिखाने से उसे क्रोध आता है, वैसे ही आजकल सन्मार्ग का उपदेश भी प्रायः लोगों के क्रोध का कारण होता है ॥13॥निलूननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥13॥ दृष्टान्ताः सन्त्यसंख्येया मतिस्तद्वशवर्तिनी ।
संसार में दृष्टान्तों की कमी नहीं है, दृष्टान्तों को सुनकर लोगों की बुद्धि उनके आधीन हो जाती है। ठीक ही है-धूर्त लोग इस विवेक शून्य पृथिवी पर क्या नहीं कर सकते ॥14॥किं न कुर्युर्महीं धूर्ता विवेकरहितामिमाम् ॥14॥ दुराग्रहग्रहग्रस्ते विद्वान्पुसि करोतु किम् ।
जो पुरुष दुराग्रह रूपी राहु से ग्रस लिया गया है (जो अपनी बुरी हठ को पकड़े हुए है) उस पुरुष को विद्वान् कैसे समझावें । मेघ के बरसने से काले पत्थर के टुकड़ों में कोमलता नहीं आती ॥15॥कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयदः ॥15॥ ईर्ते युक्तिं यदेवात्र तदेव परमार्थसत् ।
फिर भी इस लोक में जो वस्तु युक्ति सिद्ध हो वही सत्य है, क्योंकि सूर्य की किरणों की तरह युक्ति भी किसी का पक्षपात नहीं करती ॥16॥यद्भानुदीप्तिवत्तस्याः पक्षपातोऽस्ति न क्वचित् ॥16॥ ( इस प्रकार मन में विचार कर आचार्य यहाँ से उक्त मतान्तरों का क्रमशः निराकरण करते हैं -) श्रद्धा श्रेयोऽर्थिनां श्रेयःसंश्रयाय न केवला ।
कल्याण चाहने वालों का कल्याण केवल श्रद्धा मात्र से नहीं हो सकता। क्या भूख लगने से ही गूलर पक जाते हैं ? ॥17॥बुभुक्षितवशात्पाको जायेत किमुदम्बरे ॥17॥ पात्रावेशादिवन्मन्त्रादात्मदोषपरिक्षयः ।
उचित व्यक्ति में आगत भूतावेश की तरह यदि मन्त्र पाठ से ही आत्मा के दोषों का नाश होता देखा जाता, तो कौन मनुष्य संयम धारण करने का क्लेश उठाता ॥18॥दृश्येत यदि को नाम कृती किश्येत संयमैः ॥18॥ दीक्षाक्षणान्तरात्पूर्व ये दोषा भवसंभवाः ।
दीक्षा धारण करने से पहले जो सांसारिक दोष देखे जाते हैं, दीक्षा धारण करने के बाद भी वे दोष देखे जाते हैं । अतः केवल दीक्षा भी मुक्ति का कारण नहीं है ॥19॥ते पश्चादपि दृश्यन्ते तन्न सा मुक्तिकारणम् ॥19॥ (भावार्थ – पहले सैद्धान्त वैशेषिकों का मत बतलाते हुए कहा है कि वे मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने और उनपर श्रद्धा मात्र रखनेसे मोक्ष मानते हैं । उसी की आलोचना करते हुए आचार्य कहते हैं कि न केवल श्रद्धा से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है और न मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने से ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा तो मात्र रुचि को बतलाती है, किन्तु किसी चीज पर श्रद्धा हो जाने मात्र से ही तो वह प्राप्त नहीं हो जाती। इसी तरह दीक्षा धारण कर लेने मात्र से भी काम नहीं चलता, क्योंकि दीक्षा लेने पर भी यदि सांसारिक दोषों के विनाश का प्रयत्न न किया जाये तो वे दोष जैसे दीक्षा लेने से पहले देखे जाते हैं वैसे ही दीक्षा धारण करने के बादमें भी देखे जाते हैं। यदि केवल श्रद्धा या दीक्षा से ही काम चल सकता होता तो संयम धारण करने के कष्टों को उठाने की जरूरत ही नहीं रहती। अतः ये मोक्ष के कारण नहीं माने जा सकते।) (अब प्राचार्य बिना ज्ञान की क्रिया को और बिना क्रिया के ज्ञान को व्यर्थ बतलाते हैं-) ज्ञानादवगमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः ।
ज्ञान से पदार्थों का बोध होता है, किन्तु उन्हें जानने मात्र से उन पदार्थों का कार्य होता नहीं देखा जाता। यदि ऐसा होता तो पानी के देखते ही प्यास बुझ जानी चाहिए ॥20॥तर्षापकर्षयोगि स्यादृष्टमेवान्यथा पयः ॥20॥ ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् ।
तथा ज्ञान हीन पुरुष की क्रिया फलदायी नहीं होती। क्या अन्धे मनुष्य वृक्ष की छाया की तरह उसके फलों की शोभा का आनन्द ले सकते हैं ? ॥21॥तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥21॥ ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकद्वयम् ।
श्रद्धाहीन पंगु का ज्ञान और श्रद्धाहीन अन्धे की क्रिया दोनों ही कार्यकारी नहीं हैं। अतः ज्ञान, चारित्र और श्रद्धा तीनों ही मिलकर मोक्ष का कारण हैं ॥22॥ ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ॥22॥ उक्तंच - कहा भी है - "हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया ।
क्रिया-आचरण से शून्य ज्ञान भी व्यर्थ है और अज्ञानी की क्रिया भी व्यर्थ है। देखो, एक जंगल में आग लगने पर अन्धा मनुष्य दौड़ भाग करके भी नहीं बच सका, क्योंकि वह देख नहीं सकता था और लँगड़ा मनुष्य आग को देखते हुए भी न भाग सकने के कारण उसी में जल मरा ॥23॥धावनप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गकः" ॥23॥ (कौल मतवादियोंको आचार्य उत्तर देते हैं-) निःशङ्कात्मप्रवृत्तेः स्याद्यदि मोक्षसमीक्षणम् ।
यदि मद्य-मांस वगैर हमें निःशङ्क होकर प्रवृत्ति करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती तो सबसे पहले तो ठगों और मांस बेचनेवाले कसाइयोंकी मुक्ति होनी चाहिए। उनके पीछे कौल मतवालों की मुक्ति होना चाहिए ॥24॥ठकस्नाकृतां पूर्व पश्चात्कोलेष्वसौ भवेत् ॥24॥ (इस प्रकार केवल ज्ञान या केवल चारित्र से मुक्ति की प्राप्ति को असम्भव बतलाकर आगे आचार्य सांख्य मतकी आलोचना करते हैं-) अव्यक्तनरयोनित्यं नित्यव्यापिस्वभावयोः ।
सांख्य मत में प्रकृति और पुरुष दोनों व्यापक और नित्य माने गये हैं। ऐसी अवस्था में उनमें भेद-ग्रहण कैसे सम्भव है ? (व्यापक और नित्य होने से प्रकृति और पुरुष दोनों सदा से मिले हुए ही रहते हैं । तब उनमें भेद ग्रहण का कथन सांख्याचार्य कैसे करते हैं) ॥25॥विवेकेन कथं ख्याति सांख्यमुख्याः प्रचक्षते ॥25॥ (पहले नैरात्म्य भावना से मुक्ति मानने वाले एक मत का उल्लेख कर आये हैं, उसको आलोचना करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-) सर्व चेतसि भासेत वस्तु भावनया स्फुटम् ।
भावना से सभी वस्तु चित्त में स्पष्ट रूप से झलकने लगती है। यदि केवल उतने से ही मुक्ति प्राप्त होती है तो ठगों की भी मुक्ति हो जायेगी ॥26 ॥तावन्मात्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्याद्विप्रेलम्भिनाम् ॥26 ॥ तदुक्तम् - कहा भी है - "पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रनिर्भये ।
सब ओर से बन्द जेलखाने में अत्यन्त घोर अन्धकार के होते हुए और मेरे आँख बन्द कर लेने पर भी मुझे अपनी प्रिया का मुख दिखाई दिया ॥27॥मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं व्यक्तम्" ॥27॥ (भावार्थ- आशय यह है कि भावना जैसी भाई जाती है वैसी ही वस्तु दिखाई देने लगती है। अतः केवल भावना के बल पर यथार्थ वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती।) (इस प्रकार नैरात्म्य भावनावादी को उत्तर देकर आचार्य जैमिनि के मत की आलोचना करते हैं। जैमिनि का कहना है कि स्वभाव से ही कलुषित चित्त की विशुद्धि नहीं हो सकती। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-) स्वभावान्तरसंभूतिर्यत्र तत्र मलक्षयः ।
जिस वस्तु में स्वभावान्तर हो सकता है, उसमें अपने कारणों से मल का क्षय किया जा सकता है, जैसा कि मणि और मोतियों में देखा जाता है। अर्थात् मणि मोती वगैरह जन्म से ही सुमैल पैदा होते हैं किन्तु बाद को उनका मैल दूर करके उन्हें चमकदार बना लिया जाता है। इसी तरह अनादि से मलिन आत्मा से भी कर्म जन्य मलिनता को हटाकर उसे विशुद्ध किया जा सकता है ॥28॥कतुं शक्यः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफलेष्विव ॥28॥ (अब आत्मा और परलोक को न मानने वाले चार्वाकों को उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-) "तदहर्जस्तनेहातो रक्षोडष्टर्भवस्मृतेः।
उसी दिन का पैदा हुआ बच्चा माता के स्तनोंको पीनेकी चेष्टा करता है, राक्षस वगैरह देखे जाते हैं, किसी-किसी को पूर्व जन्मका स्मरण भी हो जाता है, तथा आत्मा में पञ्च भूतों का कोई भी धर्म नहीं पाया जाता। इन बातोंसे प्रकृतिका ज्ञाता जीव सनातन सिद्ध होता है ॥29॥भूतानन्बयनाजीवः प्रकृतिशः सनातनः" ॥29॥ (भावार्थ- आशय यह है कि चार्वाक आत्मा को एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। उसका कहना है कि जैसे कई चीजों के मिलाने से शराब बन जाती है और उसमें मादकता उत्पन्न हो जाती है, उसी तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतों के मिलने से एक शक्ति उत्पन्न हो जाती है या प्रकट हो जाती है, उसे ही आत्मा कह देते हैं। जब वे पाँचों भूत बिछुड़ जाते हैं तो वह शक्ति भी नष्ट हो जाती है। अतः पञ्चभूतों के सिवा आत्मा कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। इसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो उसी दिन का जन्मा हुआ बच्चा माता के स्तनो को पीने की चेष्टा करता हुआ देखा जाता है, और यदि उसके मुंह में स्तन लगा दिया जाता है तो झट पीने लगता है। यदि बच्चे को पूर्व जन्म का संस्कार न होता तो पैदा होते ही उसमें ऐसी चेष्टा नहीं होनी चाहिए थी। यह सब पूर्व जन्म का संस्कार ही है। तथा राक्षस व्यन्तरादिक देव देखे जाते हैं जो अनेक बातें बतलाते हैं। पूर्व जन्म के स्मरण की कई घटनाएँ सच्ची पाई गई हैं, तथा सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि चैतन्य ,भूतों के मेलसे पैदा होता है तो उसमें भूतों का धर्म पाया जाना चाहिए था, क्योंकि जो वस्तु जिन कारणों से पैदा होती है उस वस्तुमें उन कारणों का धर्म पाया जाता है, जैसे मिट्टी से पैदा होने वाले घड़े में मिट्टीपना रहता है, धागों से बनाये जाने वाले वस्त्र में धागे पाये जाते हैं, किन्तु चैतन्य में पंचभूतों का कोई धर्म नहीं पाया जाता । पंच भूत तो जड़ होते हैं उनमें जानने-देखने की शक्ति नहीं होती, किन्तु चैतन्य में जानने देखने की शक्ति पाई जाती है । तथा यदि चैतन्य पंचभूतों का धर्म है तो मोटे शरीर में अधिक चैतन्य पाया जाना चाहिए था और दुबले शरीर में कम । किन्तु इसके विपरीत कोई-कोई दुबले-पतले बड़े मेधावी और ज्ञानी देखे जाते हैं और स्थूल मनुष्य निर्बुद्धि होते हैं । तथा यदि चैतन्य पंचभूतों का धर्म है तो शरीर का हाथ-पैर आदि कट जाने पर उसमें चैतन्य की कमी हो जानी चाहिए; क्योंकि पंचभूत कम हो गये हैं किन्तु हाथ-पैर वगैरह के कट जानेपर भी मनुष्य के ज्ञानमें कोई कमी नहीं देखी जाती। इससे सिद्ध है कि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म नहीं है बल्कि एक नित्य द्रव्य आत्माका ही धर्म है । अतः आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है। ) (अब आचार्य वेदान्तियोंके मतकी आलोचना करते हुए उनसे पूछते हैं-) भेदोऽयं यद्यविद्या स्याद्वैचित्र्यं जगतः कुतः ।
यदि यह भेद अविद्याजन्य है- अज्ञान मूलक है, तो संसार में वैचित्र्य क्यों पाया जाता है, क्यों कोई मरता है और कोई जन्म लेता है ? कोई सुखी और कोई दुखी क्यों देखा जाता है ? ॥ 30॥जन्ममृत्युसुखप्रायैर्विवतैर्मानवर्तिभिः ॥30॥ (अब आचार्य शून्यवादी बौद्ध के मत की आलोचना करते हैं-) शून्यं तत्त्वमहं वादी साधयामि प्रमाणतः ।
'मैं शून्य तत्त्व को प्रमाणसे सिद्ध करता हूँ', ऐसी प्रतिज्ञा करने पर सर्वशून्यवाद का स्वयं विरोध हो जाता है ॥31॥इत्यास्थायां विरुध्येत सर्वशून्यत्ववादिता ॥31॥ (भावार्थ – आशय यह है कि शून्यतावादी अपने मत की सिद्धि यदि किसी प्रमाण से करता है तो प्रमाण के वस्तु सिद्ध हो जाने से शून्यतावाद सिद्ध नहीं हो सकता। और यदि बिना किसी प्रमाण के ही शन्यतावाद को सिद्ध मानता है तब तो दुनिया में ऐसी कोई वस्तु ही न रहेगी जिसे सिद्ध न किया जा सके। और ऐसी अवस्था में बिना प्रमाणके ही शन्यतावाद के विरुद्ध अशून्यताबाद भी सिद्ध हो जायेगा । अतः सर्वशून्यतावाद भी ठीक नहीं है।) (अब आचार्य मुक्ति में आत्मा के विशेष गुणों का विनाश मानने वाले कणाद मतानुयायियों की आलोचना करते हैं-) वोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्तौ भवोद्भवः ।
यदि आप यह मानते हैं कि मुक्ति में सांसारिक सुख-दुःख नहीं है तो इसमें कोई हानि नहीं है,यह बात तो हमको भी इष्ट ही है। किन्तु यदि आत्मा के समस्त पदार्थ विषयक ज्ञान के विनाश को मोक्ष मानते हैं तो फिर मुक्तात्मा का लक्षण क्या है ? क्योंकि विद्वान् लोग वस्तु के विशेष गुणों को ही वस्तु का लक्षण मानते हैं, जैसे आग का लक्षण उष्णता है, यदि आग की उष्णता नष्ट हो जाये तो फिर उसका लक्षण क्या होगा ? फिर तो आगका ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि विशेष गुणों के अभाव में गुणी का भी अभाव हो जाता है। अतः यदि मुक्तिमें आत्मा के ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव माना जायेगा तो आत्मा का भी अभाव हो जायेगा ॥32-33॥सिद्धसाध्यतयास्माकं न काचित्ततिरोक्ष्यते ॥32॥ न्यक्षवीक्षाविनिर्मोक्षे मोक्षे किं मोक्षिलेक्षणम् । न धम्नावन्यदुष्णत्वालक्ष्म लक्ष्यं विचक्षणैः ॥33॥ किं च सदाशिवेश्वरादयः संसारिणो मुक्ता वा ? संसारित्वे कथमाप्तता ? भुक्तत्वे 'केशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' इति पतञ्जलिजल्पितम् - "ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विराग
तथा आपके सदाशिव ईश्वर वगैरह संसारी हैं या मुक्त ? यदि संसारी हैं तो वे आप्त नहीं हो सकते । यदि मुक्त हैं तो 'क्लेश, कर्म, कर्मफलका उपभोग और उसके अनुरूप संस्कारों से रहित पुरुष विशेष ईश्वर है। उस ईश्वर में सर्वज्ञता का जो बीज है वह अपनी चरम सीमा को प्राप्त है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है' । पतञ्जलि का यह कथन, और 'हे भगवन् ! आप में अविनाशी ऐश्वर्य है, स्वाभाविक विरागता है, स्वाभाविक सन्तोष है, स्वभाव से ही आप इन्द्रियजयी हैं। आप में ही अविनाशी सुख, निरावरण शक्ति और सब विषयोंका ज्ञान है ॥34॥ स्तृप्तिनिसर्गजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्ति निं च सर्वविषयं भगवस्तवैव" ॥34॥ इत्यवधूताभिधानं च न घटेत। अवधूताचार्य का यह कथन घटित नहीं हो सकता है। (इस प्रकार कणाद मत के अनुयायियों की आलोचना करके आचार्य बौद्धों की आलोचना करते हैं -) अनेकजन्मसंततेर्यावदद्याक्षयः पुमान् ।
यदि पुरुष अनेक जन्म धारण करने पर भी आज तक अक्षय है, उसका विनाश नहीं हुआ तो मुक्ति प्राप्त होने पर उसका विनाश किस कारण से हो जाता है ? ॥ 35॥यद्यसौ मुक्त्यवस्थायां कुतः क्षीयेत हेतुतः ॥35॥ (अब आचार्य सांख्यमत की आलोचना करते हैं-) बाह्ये ग्राह्ये मलापायात्सत्यस्वप्न इवात्मनः
जैसे वात, पित आदि का प्रकोप न रहने पर आत्मा को सच्चा स्वप्न दिखाई देता है वैसे ही ज्ञानावरण कर्म रूपी मल के नष्ट हो जाने पर आत्मा बाह्य पदार्थों को जानता है। अतः मुक्त हो जाने पर आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और बाह्य पदार्थों को नहीं जानता यह कहना अप्रमाण है। यह भी अर्थ हो सकता है कि मल के नष्ट हो जाने पर आत्मा बाह्य पदार्थों को जानता है । और तब अपने इस स्वरूप में अनन्त काल तक अवस्थित रहता है॥ 36॥तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्नवस्थानममानकम् ॥36॥ न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्धः स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् । तथा हि - शायद कहा जाये कि सच्चे स्वप्न होते ही नहीं हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'स्वप्नाध्याय में सच्चे स्वप्न बतलाये हैं। जैसा कि उसमें लिखा है- "यस्तु पश्यति रात्र्यन्ते राजानं कुञ्जरःहयम् ।
'जो रात्रिके पिछले पहर में राजा, हाथी, घोड़ा, सोना, बैल और गाय को देखता है उसका कुटुम्ब बढ़ता है ॥37॥ सुवर्ण वृषभं गां च कुटुम्ब तस्य वर्धते" ॥37॥ यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरात्मनि ।
जहाँ आँख वगैरह इन्द्रियां नहीं होती वहां आत्मा में ज्ञान भी नहीं होता ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धे मनुष्य को भी स्वप्न दिखाई देता है ॥38॥तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमन्धोऽपि वीक्षते ॥38॥ (भावार्थ – सांख्य मुक्तात्मा में ज्ञान नहीं मानता, क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ नहीं होती। उसकी इस मान्यता का खण्डन करते हुए ग्रन्थकारका कहना है कि इन्द्रियों के होनेपर ही ज्ञान हो और उनके नहीं होने पर न हो ऐसा कोई नियम नहीं है । इन्द्रियों के अभाव में भी ज्ञान होता देखा जाता है। स्वप्न दशा में इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं फिर भी ज्ञान होता है और वह सच्चा निकलता है। अतः इन्द्रियों के अभाव में भी मुक्तात्मा को स्वाभाविक ज्ञान रहता ही है।) (जैमिनि के मत के अनुयायी मीमांसक कहे जाते हैं । मीमांसक लोग सर्वज्ञ को नहीं मानते। वे वेद को हो प्रमाण मानते हैं । उनके मत से वेद ही भूत और भविष्यत् का भी ज्ञान करा सकता है । उनका कहना है कि मनुष्य की बुद्धि कितना भी विकास करे किन्तु उसमें अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने की शक्ति कभी नहीं आ सकती। मनुष्य यदि अतीन्द्रिय पदार्थों को जान सकता है तो केवल वेद के द्वारा ही जान सकता है। इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते हैं -) जैमिन्यादेनरत्वेऽपि प्रकृष्येत मतिर्यदि।
आपके आप्त जैमिनि मनुष्य थे। फिर भी उनकी बुद्धि इतनी विकसित हो गई थी कि वे वेदको पूरी तरहसे जान सके। इसी तरह किसी पुरुषकी बुद्धि का विकास अपनी चरम सीमा को भी पहुँच सकता है ।क्योंकि जिनकी हानि-वृद्धि देखी जाती है, उनका कहीं परम प्रकर्ष और परम अपकर्ष अर्थात् अति हानि और अति वृद्धि भी देखी जाती है । जैसे परिमाण का परम प्रकर्ष आकाश में पाया जाता है ॥39॥पराकाष्ठाप्यतस्तस्याः क्वचित्खे परिमाणवत् ॥39॥ तुच्छाभावो न कस्यापि हानिदीपस्तमोऽन्वयी ।
शायद कहा जाये कि इस नियम के अनुसार तो किसी में बुद्धि का बिल्कुल अभाव भी हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि किसी भी वस्तु का तुच्छाभाव नहीं होता, अर्थात् वह चीज एक दम नष्ट हो जाये और कुछ भी शेष न रहे ऐसा नहीं होता। दीपक जब बुझ जाता है तो प्रकाश अन्धकार रूपमें परिवर्तित हो जाता है। तथा पृथिवी वगैरह में बुद्धि की अत्यन्त हानि देखी जाती है । क्योंकि पृथिवीकायिक आदि जीव पृथिवी आदि रूप पुद्गलोंको अपने शरीर रूप से ग्रहण करता है और मरण होनेपर उन्हें छोड़ देता है। अतः जीव के वियुक्त हो जाने पर उन पृथिवी आदि रूप पुद्गलों में बुद्धि का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसमें तो सिद्ध साध्यता है ॥40॥धेरादिषु धियो हानौ विश्लेषे सिद्धसाध्यता ॥40॥ तदावृतिहतौ तस्य तपनस्येव दीधितिः।
अतः जैसे सूर्य के ऊपर से आवरण के हट जाने पर उसकी किरणें समस्त जगत् को प्रकाशित करती हैं। वैसे ही बुद्धि के ऊपरसे कर्मों का आवरण हट जाने पर वह समस्त जगत्को क्यों नहीं जान सकती, अवश्य जान सकती है ॥41॥ कथं न शेमुषी सर्व प्रकाशयति वस्तु यत् ॥41॥ (अब आचार्य ब्रह्माद्वैत की आलोचना करते हैं-) ब्रह्मैकं यदि सिद्धं स्यान्निस्तरङ्गं कुतश्च न ।
यदि केवल एक ब्रह्म ही है तो वह निस्तरंग–सांसारिक भेदों से रहित क्यों नहीं है अर्थात् यह लोक भिन्न क्यों दिखाई देता है। तथा जैसे घट के फूट जाने पर घट के द्वारा छेका गया आकाश आकाश में मिल जाता है,वैसे ही इस जगत्को भी उसी ब्रह्म में मिल जाना चाहिए ॥42॥घटाकाशमिवाकाशे तत्रदं लीयतां जगत् ॥42॥ अथ मतम् एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः।
शायद कहा जाये कि -एकधानेकधा चापि दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥43॥ एकः खेऽनेकधान्यत्र यथेन्दुर्वेद्यते जनैः । न तथा वेद्यते ब्रह्म भेदेभ्योऽन्यदभेदभाक् ॥44॥ जैसे चंद्रमा एक होते हुए भी जल में प्रतिविम्ब पड़ने पर अनेक रूप दिखाई देता है उसी तरह एक ही ब्रह्म भिन्न भिन्न शरीरों में पाया जाने से अनेक रूप दिखाई देता है ॥43॥ किन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे चन्द्रमा आकाश में एक और जल में अनेक दिखाई देता है, वैसे भेदों से जुदा एक ब्रह्म ज्ञानगोचर नहीं होता ॥44॥ अलमतिविस्तरेण।
अस्तु, अब इस प्रसंग को यहीं समाप्त करते हैं। आनन्दो शानमैश्वर्य वीर्य परमसूक्ष्मता।
मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमन जहाँ पर अविनाशी सुख, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मत्व आदि गुण पाये जाते हैं उसी को मोक्ष कहते हैं। जैसे आग की ज्वाला और एरण्डके बीज स्वभाव से ही ऊपर को जाते हैं, उसी प्रकार मुक्तात्मा भी स्वभाव से ही ऊपर को जाता है । यदि यही माना जाये कि मुक्त होने पर आत्मा यहीं रह जाता है कहीं जाता नहीं है, तो पुण्यात्माओं का स्वर्गगमन और पापात्माओं का नरक गमन भी नहीं होगा। फिर तो परलोक की कथा ही व्यर्थ हो जाती है। अतः मुक्तात्माको ऊर्ध्वगामी 'मानना चाहिए ॥45-47॥एतदात्यन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ॥45॥ ज्वालोरुवकबीजाद्रेः स्वभावादूर्ध्वगामिता । नियता च यथा दृष्टा मुक्तस्यापि तथात्मनः ॥46॥ तथाप्यत्र तदावासे पुण्यपापात्मनामपि । स्वर्गश्वभ्रागमो न स्यादलं लोकान्तरेण वे ॥47॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में समस्त मतों के सिद्धान्तों का ज्ञान कराने वाला पहला कल्प समाप्त हुआ । |