+ आप्त स्वरूप की मीमांसा -
कल्प - २

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

अहो धर्माराधनकमते वसुमतीपते, सम्यक्त्वं हि नाम नराणां महती खलु पुरुषदेवता ।यत्सकदेकमेव यथोक्तगुणप्रगुणतया संजातमशेषकल्मषकलुषधिषणतया नरकादिषु गतिषु, पुष्यदायुषामपि मनुष्याणां षट्सु तेलपातालेषु, भष्टविधेषु व्यन्तरेषु, दशविधेषु भवनवासिषु, पञ्चविधेषु ज्योतिष्केषु, त्रिविधासु स्त्रीषु, विकलकरणेषु पृथ्वीपयःपावकपवनकायिकेषु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहेतुः । सावधिं विदधात्याजवंजवीभावं, नियमेन संपादयति कंचित्कालमुपलभ्यात्मनश्चा:चारित्रे, साधुसंपादनसारः संस्कार इव 'बीजेषु जन्मान्तरेऽपि न जहात्यात्मनोऽनुवृत्तिम् , सिद्धश्चिन्तामणिरिव च फलत्यसीमं कामितानि। व्रतानि पुनरोषधय इव फलपाकावसानानि पाथेयवन्नियतवृत्तीनि च । न च सिद्धरसवेधसंबन्धादुर्षर्बुधसंनिधानमात्रजन्मनि जाम्बुनद इवात्र पदार्थयाथात्म्यसमवगमान्मनोमननमात्रतन्त्रे निःशेषश्रुतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणीयः, न शरीरमायासयितव्यम् , न देशान्तरमनुसरणीयम् , नापि कालक्षेपकुतिरपेक्षितव्यः। तस्मादधिष्ठानमिव प्रासादस्य, सौभाग्यमिव रूपसंसदः, प्राणितमिव भोगायतनोपचारस्य, मूलबलमिव विजयप्राप्तः, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नयानुष्ठानमिव राज्यस्थितेरखिलस्यापि परलोकोदाहरस्य सम्यक्त्वमेव ननु प्रथमं कारणं गृणन्ति गरीयांसः। तस्य चेदं लक्षणम् -

(अब ग्रन्थकार सम्यक्त्व का माहात्म्य और स्वरूप बतलाते हैं-)

सम्यक्त्व का माहात्म्य धर्मप्रेमी राजन् ! सम्यक्त्व मनुष्यों का एक महती पुरुष देवता है अर्थात् देवता की तरह उनका रक्षक है। क्योंकि यदि अपने यथोक्त गुणों से समन्वित सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त हो जाता है तो समस्त पापों से कलुषित मति होने के कारण जिन पुरुषों ने नरकादिक गतियों में से किसी एक की आयु का बन्ध कर लिया है उन मनुष्यों का नीचे के छै नरकों में ,आठ प्रकार के व्यन्तरों में, दस प्रकार के भवनवासियों में, पाँच प्रकारके ज्योतिषी देवों में, तीन प्रकार की स्त्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पृथिवीकाय, जलकाय, तैजसकाय,वायुकाय और वनस्पतिकाय में जन्म नहीं होने देता। संसार को सान्त कर देता है। कुछ समय के पश्चात् उस आत्मा के सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अवश्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे, बीजों में अच्छी तरह से किया गया संस्कार बीजों की वृक्ष रूप पर्यायान्तर होने पर भी वर्तमान रहता है, उसी तरह सम्यक्त्व जन्मान्तर में भी आत्मा का अनुसरण करता है, उसे छोड़ता नहीं है। सिद्ध चिन्तामणि के समान असीम मनोरथों को पूर्ण करता है। व्रत तो औषधि वृक्षों की तरह ( जो वृक्ष फलों के पकने के बाद नष्ट हो जाते हैं उन्हें ओषधि वृक्ष कहते हैं ) मोक्षरूपी फल के पकने तक ही ठहरते हैं तथा कलेवा की तरह नियत काल तक ही रहते हैं। ( किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है ) पारे और अग्नि के संयोगमात्र से उत्पन्न होने वाले स्वर्ण की तरह, पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनमें मन को लगाने मात्र से प्रकट होने वाले सम्यक्त्व के लिए
  • न तो समस्त श्रुत को सुनने का परिश्रम ही करना आवश्यक है,
  • न शरीर को ही कष्ट देना चाहिए,
  • न देशान्तर में भटकना चाहिए और
  • न काल की ही अपेक्षा करनी चाहिए।
अर्थात् सम्यक्त्व के लिए किसी काल-विशेष या देश-विशेष की आवश्यकता नहीं है । सब देशों और सब कालों में वह हो सकता है। इसलिए जैसे
  • नींव को महल का,
  • सौभाग्य को रूप सम्पदा का,
  • जीवन को शारीरिक सुख का,
  • मूल बल को विजय का,
  • विनम्रता को कुलीनता का,
  • और नीति पालन को राज्य की स्थिरता का
मूल कारण माना जाता है वैसे ही महात्मागण सम्यक्त्व को ही समस्त पारलौकिक अभ्युन्नति का अथवा मोक्ष का प्रथम कारण कहते हैं । उस सम्यक्त्व का लक्षण इस प्रकार है – सम्यग्दर्शन का लक्षण -

आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात् ।
मूढाद्यपोढमष्टाङ्गं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक् ॥48॥
अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढता रहित, आठ अङ्ग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रशम संवेग आदि गुणवाला होता है ॥48॥

(भावार्थ – सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलनेपर प्रकट होता है। इसका अन्तरंग कारण तो दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम है। मोहनीय कर्म के भेदों मेंसे दर्शन मोहनीय कर्म सम्यक्त्व गुण का घातक है।जब तक इस कर्म का उदय रहता है तब तक सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं होता। जब उस कर्म का उपशम कर दिया जाता है अर्थात् कुछ समय के लिए उसे इस योग्य कर दिया जाता है कि वह अपना फल नहीं दे सकता तब जीव के प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है। इसके प्रकट होते ही जीव की अन्तर्दृष्टि में ऐसी निर्मलता आ जाती है कि वह अपने सच्चे हित और सच्चे हितकारी को पहचानने में भूल नहीं करता। सच्चा देव कौन है, सच्चे शास्त्र कौन हैं और सच्चे तत्त्व कौन हैं, इसकी उसे परख हो जाती है और उनपर वह ऐसी दृढ़ आस्था रखता है कि कोई उसे उसकी आस्था से विचलित नहीं कर सकता। साथ-साथ सम्यक्त्वके प्रभाव से उसके अन्दर प्रशम आदि अनेक गुण प्रकट होते हैं। काम क्रोधादि विकारों से उसकी रुचि हट जाती है । जो उसको हानि पहुँचाते हैं उन जीवों को भी सताने के उसके भाव नहीं होते। यह प्रशम गुण कहलाता है । धर्माचरण करने में उसे खूब उत्साह रहता है और जो अन्य धर्मात्मा होते हैं उनसे वह खूब प्रेम करता है। यह संवेग गुण कहलाता है । सब जीवों से वह मित्र की तरह व्यवहार करता है। इसे अनुकम्पा कहते हैं। जीव एक स्वतः सिद्ध पदार्थ है। वह अनादिकालसे कर्मों से बद्ध है ।वह उनका कर्ता भी है और भोक्ता भी है। और जब वह उन कर्मों को नष्ट कर देता है तो मुक्त हो जाता है इस तरह का उसे विश्वास रहता है । इसे आस्तिक्य कहते हैं। असल में सम्यक्त्व आत्मा का गुण है, और वह गुण दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से अनादिकालसे मिथ्यारूप हो रहा है। उसके मिथ्यारूप होनेसे जीव की रुचि विषय भोग वगैरह बुरे कामों में तो लगती है, किन्तु जिनसे उसका सच्चा और स्थायी कल्याण होता है उन कार्यों में या कार्यों का उपदेश देने वालों में नहीं होती । जब काललब्धि वगैरह का योग मिल जाता है और संसार समुद्र का किनारा करीब आने को होता है तब विना प्रयत्न किये ही अन्तर्मुहर्त के लिए दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से उपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है । इसमें बाह्य निमित्त अनेक होते हैं। किन्हीं को जिन विम्ब के दर्शन से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किन्हीं को जिन भगवान की महिमा के देखने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किन्हीं को जैन धर्मका उपदेश सुनने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। किन्हीं देवताओं को अन्य देवताओं का ऐश्वर्य देखकर और उसे धर्म का फल समझने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है ।किन्हीं को पूर्व जन्म का स्मरण हो जाने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और किन्हीं नारकी वगैरह को कष्ट भोगने से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है ।अन्य भी अनेक बाह्य कारण शास्त्रों में बतलाये हैं। इन अन्तरंग और बाह्य कारणों के मिलने पर सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। जैसे शराब या धतूरे के नशे से बेहोश मनुप्य का जब नशा उतर जाता है तो उसे जैसा होश होता है, वैसे ही दर्शन मोहनीय के उदय से जीव में एक विचित्र प्रकार का नशा-सा छाया रहता है, जिससे उसे बराबर बुद्धि भ्रम बना रहता है। अनेक शास्त्रों का पण्डित हो जाने पर भी उसकी बुद्धि का भ्रम दूर नहीं होता। किन्तु जैसे ही दर्शन मोह का उदय शान्त हो जाता है वसे ही उसका वह बुद्धि भ्रम हट जाता है और उसकी दृष्टि ठीक दिशा में लग जाती है। इसी से उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं।सम्यग्दर्शन के विषयभूत देव आप्त वगैरह का तथा आठ अंगों का स्वरूप आगे ग्रन्थकार स्वयं बतलायेंगे।)

आप्त का स्वरूप


सर्वज्ञं सर्वलोकेशं सर्वदोषविवर्जितम् ।
सर्वसत्त्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोचिताः ॥49॥
ज्ञानवान्मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये।
अझोपदेशकरणे विप्रलम्भनशङ्किभिः ॥50॥
जो सर्वज्ञ है, समस्त लोकों का स्वामी है, सब दोषों से रहित है और सब जीवों का हितू है, उसे आप्त कहते हैं। चूंकि यदि अज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो उससे ठगाये जाने की शंका रहती है, इसलिए मनुष्य उपदेश के लिए ज्ञानी पुरुष की ही खोज करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा कही गई बातों पर विश्वास करने के लिए किसी ज्ञानी को ही खोजा जाता है ॥49-50॥

(ऊपर आप्त को समस्त लोकों का स्वामी बतलाया है। किन्तु जैन-धर्म में आप्त को न तो ईश्वर की तरह जगत् का कर्ता-हर्ता माना गया है और न उसे सुख-दुःख का देने वाला ही माना गया है। ऐसी स्थिति में यह शङ्का होना स्वाभाविक है कि आप्त को सब लोगों का स्वामी क्यों बतलाया ? इसी बात को मन में रखकर ग्रन्थकार कहते हैं-)

यस्तत्त्वदेशनाद्दुःखवार्धरुद्धरते जगत् ।
कथं न सर्वलोकेशः प्रह्वीभूतजगत्त्रयः ॥51॥
जो तत्त्वों का उपदेश देकर दुःखों के समुद्र से जगत् का उद्धार करता है, अत एव कृतज्ञतावश तीनों लोक जिसके चरणों में नत हो जाते हैं, वह सर्व-लोकों का स्वामी क्यों नहीं है ? ॥51॥

क्षुत्पिपासाभयं द्वेषश्चिन्तनं मूढतागमः।
राँगो जरा रुजा मृत्युः क्रोधः खेदो मदो रतिः ॥52॥
विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः।
त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥53॥
एभिर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो नीरञ्जन: ।
स एव हेतुः सूक्तीनां केवलज्ञानलोचनः ॥54॥
रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते छनृतम् ।
यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति ॥ 55॥
भूख, प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष संसार के सभी प्राणियों में पाये जाते हैं। जो इन दोषों से रहित है वही आप्त है। उसकी आँखे केवल ज्ञान है उसीके द्वारा वह चराचर विश्व को जानता है तथा वही सदुपदेश का दाता है। वह जो कुछ कहता है सत्य कहता है, क्योंकि राग से, द्वेष से या मोह से झूठ बोला जाता है। किन्तु जिसमें ये तीनों दोष नहीं हैं, उसके झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है ॥52-55॥

उच्चावचप्रसूतीनां सत्त्वानां सदृशाकृतिः।
य श्रादर्श इवाभाति स एव जगतां पतिः ॥५६॥
विविध प्रकार के प्राणियों की शकल-सूरत समान होती है। किन्तु उनमें से जिसका आत्मा दर्पण के समान स्वच्छ हो वही जगत् का स्वामी है ॥56॥

यस्यात्मनि श्रुते तत्त्वे चारित्रे मुक्तिकारणे ।
एकवाक्यतया वृत्तिराप्तः सोऽनुमतः सताम् ॥57॥
जिसकी आत्मा में, श्रुति में, तत्त्व में और मुक्ति के कारणभूत चारित्र में एकवाक्यता पाई जाती है अर्थात् जो जैसा कहता है वैसा ही स्वयं आचरण करता है और वैसी ही तत्त्व ब्यवस्था भी उपलब्ध होती है , उसे सज्जन पुरुष आप्त मानते हैं ॥57॥

(इस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि जिन पुरुषों को आप्त माना जाता है वे तो गुजर चुके । हम कैसे जानें कि वे आप्त थे ? इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं -)

अत्यतेप्यागमात्पुंसि विशिष्टत्वं प्रतीयते ।
उद्यानमध्यवृत्तीनां ध्वनेरिव नगौकसौम् ॥58॥
अतीन्द्रिय पुरुष की विशिष्टता उसके द्वारा उपदिष्ट आगम से जानी जाती है। जैसे , बगीचे में रहने वाले पक्षियों की आवाज से उनकी विशिष्टता का भान होता है। अर्थात् पक्षियों को विना देखे भी जैसे उनकी आवाज से उनकी पहचान हो जाती है, वैसे ही आप्त पुरुषों को बिना देखे भी उनके शास्त्रों से उनकी आप्तता का पता चल जाता है ॥58॥

स्वगुणैः श्लाघ्यतां ग्राति स्वदोषैर्दूष्यतां जनः ।
रोषतोषौ वृथा तत्र कलधौायसोरिव ॥59॥
चाँदी और लोह की तरह मनुष्य अपने ही गुणों से प्रशंसा पाता है और अपने ही दोषों से बदनामी उठाता है। इसमें रोष और तोष करना अर्थात् अपने आप्त को प्रशंसा सुनकर हर्षित होना और निन्दा सुनकर क्रुद्ध होना व्यर्थ है ॥59॥

द्रुहिणोधोक्षजेशानशाक्यसूरपुरःसराः ।
यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तत्राप्तता भवेत् ॥60॥
रागादिदोषसंभूतिज्ञेयामीषु तदार्गमात् ।
असतः परदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ॥61॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध और सूर्य वगैरह देवता यदि रागादिक दोषोंसे युक्त हैं तो वे आप्त कैसे हो सकते हैं ? और वे रागादि दोषों से युक्त हैं यह बात उनके शास्त्रों से ही जाननी चाहिए, क्योंकि जिसमें जो दोष नहीं है उसमें उस दोष को मानने में बड़ा पाप है ॥60-61॥

अजस्तिलोत्तमाचित्तः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः ।
अर्धनारीश्वरः शंभुस्तथाप्येषां किलाप्तता ॥62॥
वसुदेवः पिता यस्य सवित्री देवकी हरेः॥
स्वयं च राजधर्मस्थश्चित्रं देवस्तथापि सः ॥63॥
त्रैलोक्यं जठरे यस्य यश्च सर्वत्र विद्यते ।
किमुत्पत्तिविपत्ती स्तां क्वचित्तस्येति चिन्त्यताम् ॥64॥
देखो, ब्रह्मा तिलोत्तमा में आसक्त हैं, विष्णु लक्ष्मी में लीन हैं और महेश तो अर्धनारीश्वर प्रसिद्ध ही हैं। आश्चर्य है, फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है। विष्णु के पिता वसुदेव थे, माता देवकी थी, और वे स्वयं राजधर्मका पालन करते थे। आश्चर्य है, फिर भी वे देव माने जाते हैं । सोचनेकी बात है कि जिस विष्णु के उदर में तीनों लोक बसते हैं और जो सर्वव्यापी है, उसका जन्म और मृत्यु कैसे हो सकते हैं ? ॥62-64॥

कपर्दी दोषवानेष निःशरीरः सदाशिवः।
अप्रामाण्यादशक्तश्च कथं तत्रागमागमः ॥65॥
परस्परविरुद्धार्थमीश्वरः पञ्चभिर्मुखैः ।
शास्त्रं शास्ति भवेत्तत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥66॥
महेश को अशरीरी और सदाशिव मानते हैं, और वह दोषों से भी युक्त है। ऐसी अवस्था में न तो वह प्रमाण माना जा सकता है और न वह कुछ उपदेश ही दे सकता है; क्योंकि वह दोषयुक्त है और शरीर से रहित है ।तब उससे आगम की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?, जब शिव पाँच मुखों से परस्पर में विरुद्ध शास्त्रों का उपदेश देता है तो उनमें से किसी एक अर्थ का निश्चय करना कैसे संभव है ॥65-66॥

सदाशिवकला रुद्रे यद्यायाति युगे युगे ।
कथं स्वरूपभेदः स्यात्काञ्चनस्य कलास्विव ॥67॥
कहा जाता है कि प्रत्येक युग में रुद्र में सदाशिव की कला अवतरित होती है। किन्तु जैसे सुवर्ण और उसके टुकड़ों में कोई भेद नहीं किया जा सकता, वैसे ही अशरीरी सदाशिव और सशरीर रुदमें कैसे स्वरूप भेद हो सकता है ॥67॥

(भावार्थ – शिव या रुद्र की उपासना वैदिक काल से भी पूर्व से प्रचलित बतलाई जाती है। शैवों के चार विभिन्न सम्प्रदाय हैं—शैव, पाशुपत, कालमुख और कापालिक । इन्हीं के मूल ग्रन्थों को शैवागम के नामसे पुकारते हैं। इन शैव मतों का प्रचार भिन्न-भिन्न प्रान्तों में था । शैव सिद्धान्त का प्रचार तमिल देश में और वीर शैव मतका प्रचार कर्नाटक प्रान्त में था ।पाशुपत मत का केन्द्र गुजरात और राजपूताना था । कहा जाता है.कि शिवने अपने भक्तों के उद्धारके लिए अपने पाँच मुखोंसे 28 तंत्रोंका आविर्भाव किया। इनमें 10 तंत्र द्वैतमूलक हैं और 18 द्वैताद्वैत प्रधान हैं। देवताके स्वरूप, गुण, कर्म आदिका जिसमें चिन्तन हो तद्विषयक मंत्रोंका उद्धार किया गया हो, उन मंत्रोंको यंत्रमें रखकर देवता का ध्यान तथा उपासना के पाँचों अंग व्यवस्थित रूपसे दिखलाये गये हों, उन ग्रन्थोंको तंत्र कहते हैं। तंत्रों की विशेषता क्रिया है। तांत्रिक आचार एक रहस्यपूर्ण व्यापार है। गुरु के द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के समय ही शिष्य को इसका रहस्य समझाया जाता है । शैव सिद्धान्त में चार पाद हैं-विद्यापाद, क्रियापाद, योगपाद और चर्यापाद । इनमें से अन्त के तीन पाद क्रिया परक हैं और विद्यापाद तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखता है। विद्या अर्थात् ज्ञान के तीन विषय हैं -
  1. पति अर्थात् स्वतंत्र शिव अथवा परमेश्वर तत्त्व,
  2. पशु अर्थात् परतंत्र जीव और
  3. पाश अर्थात् बन्धके कारण ।
मुक्त जीव भी परमेश्वर के परतंत्र रहते हैं। यद्यपि पशुओं की अपेक्षा उनमें स्वतंत्रता रहती है फिर भी वे परमेश्वर के प्रसाद से ही मुक्ति लाभ करने में समर्थ होते हैं, इसलिए वे शिव के परतंत्र हैं। शिव नित्य मुक्त है। उसका शरीर पञ्चमंत्रात्मक है। वह पाँच मुखों के द्वारा पाँच आम्नायों का प्रवर्तन कर्ता है। इसी बात को लेकर ग्रन्थकार ने ऊपर शैव मत की आलोचना की है। जब शिव को उपास्य और उपासक रूप से क्रीड़ा करने की इच्छा उत्पन्न होती है तब परम शिव में कम्पन उत्पन्न होता है और उससे वह दो रूप हो जाता है-चैतन्यात्मक रूपका नाम शिव और दूसरे अंशका नाम जीव होता है। शैव सिद्धान्त के अनुसार शिव, शक्ति और बिन्दु ये तीन रत्न माने जाते हैं। ये ही समस्त तत्त्वों के अधिष्ठाता हैं ।शुद्ध जगत्का कर्ता शिव, करण शक्ति और उपादान बिन्दु है। शक्ति परम शिव से अभिन्न होकर रहने वाला विशेषण है। न तो शिव शक्ति से भिन्न है न शक्ति शिव से भिन्न है। शक्ति के क्षोभ मात्र से परम शिव के दो रूप हो जाते हैं एक उपास्य रूप, जिसका नाम है लिंग [शिव] और दूसरा उपासक रूप, जिसका नाम है 'अंग' [जीव]। परम शिव की द्विरूपता के समान शक्ति में भी दो रूप उत्पन्न होते हैं, लिंग की शक्ति का नाम 'कला' है जो प्रवृत्ति उत्पन्न करती है। कला शक्ति से जगत् परम शिव से प्रकट होता है । सदाशिव की यह कला रुद्रों में अवतरित होती है जो भिन्न भिन्न रूप वाले होते हैं ।)


भैक्षनर्तननग्नत्वं पुरत्रयविलोपनम् ।
ब्रह्महत्याकपालित्वमेताः क्रीडाः किलेश्वरे ॥68॥
भिक्षा माँगना, नाचना, नग्न होना, त्रिपुर को भस्म करना, ब्रह्म हत्या करना और हाथ में खप्पर रखना ये सदाशिव ईश्वर की क्रीड़ायें हैं ॥68॥

(भावार्थ – शिव का हाथ में खप्पर लेकर भिक्षा माँगना, नंगे घूमना और ताण्डव नृत्य करना तो प्रसिद्ध ही है ।शिव की उपासना भी इसी प्रकार से की जाती है। साधक को महेश्वर की पूजा के समय हंसना, गाना, नाचना, जीभ और तालु के संयोग से बैल की आवाज के समान हुडहुड़ शब्द करना होता है। इसी के साथ भस्म स्नान, भस्म शयन, जप और प्रदक्षिणा को पंचविध व्रत कहते हैं। ये सब कार्य शिव को बहुत प्रिय बतलाये जाते हैं ।त्रिपुर को भस्म करने की कथा निम्न प्रकार है-एक बार इन्द्रके साथ सब देवता महेश्वरके पास आये और कहने लगे कि बाण नामका एक दानव है उसका त्रिपुर नाम का नगर है। उससे डरकर हम आपकी शरणमें आये हैं, आप हमारी रक्षा करें। शिवजीने उन्हें रक्षाका आश्वासन दिया और यह विचारने लगे कि त्रिपुर को कैसे नष्ट करना चाहिये । शिवजी ने नारदजी को बुलाया और उनसे कहा कि हे नारद ! तुम दानवेन्द्र बाणके त्रिपुर नगरको जाओ । वहाँ की स्त्रियों के तेज से वह नगर आकाश में डोलता है। तुम वहाँ जाकर उनकी बुद्धि विपरीत कर दो। नारद ने वहाँ जाकर अपने मिथ्या उपदेश से वहाँ की स्त्रियों का मन पति व्रत धर्म से विचलित कर दिया। इससे उनका तेज जाता रहा और पुर में छिद्र हो गया ।तब शिवजी ने त्रिपुर को अपने बाण से जला डाला। इसके जलने का दर्दनाक चित्रण मत्स्य पुराण में है। ब्रह्म हत्या की कथा इस प्रकार है- ब्रह्मा के गर्दभकी तरह पाँचवाँ मुख था । जब दैत्य लोग देवों से डरकर भागने लगे तो ब्रह्मा ने कहा- क्यों डरकर भागते हो ? मैं सब सुरों को खा डालूँगा।' इससे डरकर देवता गण विष्णु की शरण में पहुँचे और उनसे प्रार्थना की कि आप ब्रह्मा का मुख काट डालें। विष्णु बोले-'यदि मैं ब्रह्मा का मुख काट डालूँगा तो उसी समय वह कटा सिर सचराचर जगत का संहार कर डालेगा। तुम शिवजीके पास जाओ। देवता शिवजी के पास गये और शिवजी ने अपने नखों से ब्रह्मा के उस पाँचवें मुखको काट डाला। इस पर ब्रह्मा ने कहा-तुमने बिना किसी अपराध के मेरा सिर काटा है, मैं तुम्हें शाप देता हूँ तुम ब्रह्म हत्या से पीड़ित होकर भूतल पर हाथ में खप्पर लेकर भटकते फिरोगे। इस शापसे शिवजी हाथमें खप्पर लेकर घूमने लगे । एक दिन वे नारायण के पास भिक्षाके लिए गये । विष्णु ने अपने नखों से अपने पार्श्व को चीर डाला और रक्त को बड़ी भारी धारा बह निकली किन्तु खप्पर नहीं भरा । जब विष्णु ने इसका कारण पूछा तब शिवजी ने ब्रह्म हत्या करने का सब हाल उनसे कहा और बोले कि मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ वहाँ यह कपाल मेरे साथ जाता है । तब विष्णु बोले तुम स्थान-स्थान पर जाकर ब्रह्मा की इच्छा पूर्ण करो । उसके तेज से यह कपाल ठहर जायेगा । तब शिवजी ने वैसा ही किया और विष्णु के प्रसाद से वह कपाल सहस्र खण्ड होकर फूट गया। और शिवजी ब्रह्म हत्याके पाप से मुक्त हो गये।' इस तरह की बातें किसी ईश्वर में कैसे पाई जा सकती हैं।)

सिद्धान्तेऽन्यत्प्रमाणेऽन्यदन्यत्काव्येऽन्यदीहिते ।
तत्त्वमाप्तस्वरूपं च विचित्रं शैवदर्शनम् ॥69॥
शैव दर्शन में तत्त्व और आप्त का स्वरूप सिद्धान्त रूप में कुछ अन्य है, प्रमाणित कुछ अन्य किया जाता है, काव्य में कुछ अन्य है और व्यवहार में कुछ अन्य है। शैव दर्शन भी बड़ा विचित्र है ॥69॥

एकान्तः शपथश्चैव वृथा तत्त्वपरिग्रहे ।
सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः ॥70॥
दाहच्छेदकषाऽशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ।
दाहच्छेदकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ॥71॥
यदृष्टमनुमानं च प्रतीति लौकिकी भजेत् ।
तदाहुः सुविदस्तत्त्वं रहः कुहकवर्जितम् ॥72॥
तत्त्व को स्वीकार करने में एकान्त और कसम खाना दोनों ही व्यर्थ हैं । विवेकशील पुरुष दूसरों पर विश्वास करके तत्त्व को स्वीकार नहीं करते । तपाने, काटने और कसौटी पर घिसने से जो सोना अशुद्ध ठहरता है, उसके लिए कसम खाना बेकार है। तथा तपाने, काटने और कसौटी पर घिसने से जो सोना खरा निकलता है उसके लिए कसम खाने से क्या लाभ ? जो प्रत्यक्ष, अनुमान और लौकिक अनुभव से ठीक प्रमाणित होता है, और गोप्यता तथा माया छल से रहित होता है विद्वान लोग उसीको यथार्थ तत्त्व मानते हैं ॥70-72॥

(इस प्रकार शैव मत की आलोचना करके ग्रन्थकार शाक्त मत की आलोचना करते हैं। यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि शैवदर्शन और शाक्त दर्शन का पारस्परिक सम्बन्ध आत्मा और शरीर जैसा है । दोनों के सिद्धान्त लगभग मिलते हुए हैं। शैव दर्शन में पूर्ण शिव भाव को प्रकट करने के तीन उपाय बतलाये हैं
  1. शांभव उपाय
    - इसमें पूर्ण अनुभवी गुरु से दीक्षा ली जाती है और उसी से स्वरूप का भान प्रकट होता है।
  2. शाक्त उपाय
    - इसमें दीक्षा के क्रम से प्राप्त हुए मंत्र को भावना के द्वारा सिद्धि करके स्वरूप का भान करने का क्रम बतलाया है।
  3. आणव उपाय
    - इसमें बद्ध जीव का दीक्षा क्रम के द्वारा शोधन करके जप, होम, पूजन, ध्यान वगैरह क्रियाकाण्ड के द्वारा स्वरूप का भान करने की पद्धति होती है।
इन तीन उपायों में से दूसरे और तीसरे उपाय का वर्णन करने में शैव दर्शन शाक्त दर्शन रूप ही पड़ता है। शाक्त दर्शन का मुख्य प्रयोजन शब्द ब्रह्म को ज्ञान की मर्यादा में लाना है। इसमें यन्त्र तन्त्र और मंत्रकी बहुतायत होती है । इष्ट देवता के स्वरूप को मर्यादा में अंकित करने वाली बाह्य प्राकृति को यंत्र कहते हैं। उस देवता के नाम, रूप, गुण और कर्म को लेकर पूजन वगैरह की पद्धति का वर्णन करने वाले शास्त्र को तन्त्र कहते हैं और उसके रहस्य के बोधक शब्दों को मंत्र कहते हैं। यहाँ ग्रन्थकार तन्त्र मंत्र से मुक्ति होने के विचार की आलोचना करते हैं-यहाँ इतना और बतला देना आवश्यक है कि तंत्र साधना में स्त्री एक आवश्यक साधन माना जाता है। और मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन इन पाँच मकारों का सेवन भी किया जाता है।)


निर्बीजतेव तन्त्रेण यदि स्यान्मुक्तताङ्गिनि ।
बीजवत्पावकस्पर्शः प्रणेयो मोक्षकांक्षिणि ॥73॥
जैसे अग्नि के स्पर्श से बीज निर्बीज हो जाता है उसमें उत्पादन शक्ति नहीं रहती, वैसे ही यदि तंत्र के प्रयोग से ही प्राणी की मुक्ति हो जाती है तो मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को भी आग का स्पर्श करा देना चाहिए जिससे बीज की तरह वह भी जन्म मरण के चक्र से छूट जाये ॥73॥

विषसामर्थ्यवन्मन्त्रात्तयश्चेदिह कर्मणः ।
तर्हि तन्मन्त्रमान्यस्य न स्युर्दोषा भवोद्भवाः ॥74॥
जैसे, मंत्र के द्वारा विष की मारण शक्ति को नष्ट कर दिया जाता है, वैसे ही मंत्र के द्वारा यदि कर्मों का भी क्षय हो जाता है तो उन मंत्रों के जो मान्य हैं उनमें सासांरिक दोष नहीं पाये जाने चाहिये ॥74॥

(इस प्रकार शाक्त मत की आलोचना करके ग्रन्थकार सूर्य पूजा की आलोचना करते हैं )

ग्रहगोत्रगतोऽप्येष पूषा पूज्यो न चन्द्रमाः ।
अविचारिततत्त्वस्य जन्तोवृत्तिनिरङ्कशा ॥75॥
ग्रहों के कुल का होने पर भी यह सूर्य तो पूज्य हैं और चन्द्रमा पूज्य नहीं है ? ठीक ही है जिस जीव ने तत्त्वका विचार नहीं किया, उसकी वृत्ति निरंकुश होती है ॥75॥

(अब बौद्ध-मत की आलोचना करते हैं-)

द्वताद्वैताश्रयः शाक्यः शंकरानुकृतागमः।
कथं मनीषिभिर्मान्यस्तरसासवशक्तधी ॥76॥
बौद्धमत एक ओर द्वैतवादी है अर्थात् संयम और भक्ष्याभक्ष्य आदि का विचार करता है और दूसरी ओर अद्वैतवादी है, अर्थात् सर्व कुछ सेवन करने की छूट देता है । उसी के आगम का अनुकरण शंकराचार्य ने किया है। ऐसा मद्य और मांस का प्रेमी मत बुद्धिमानों के द्वारा मान्य कैसे हो सकता है ? ॥७६॥

(इस प्रकार अन्य मतों की समीक्षा करने पर उन मतों के अनुयायी कहते हैं-)

अथैवं प्रत्यवतिष्ठासवो-भवतां समये किल मनुजः सन्नाप्तो भवति तस्य चाप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संजातजनवद् भवतु वा, तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्त्वावबोधो न स्वतस्तथा दर्शनाभावात् ।परश्चेत्कोऽसौ परः ? तीर्थकरोऽन्यो वा ? तीर्थकरश्चेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनुबन्धे । तस्मादनवस्था । तदभावमाप्तसद्भावं च वाञ्छद्भिःसदाशिवः शिवापतिर्वा तस्य तत्त्वोपदेशकः प्रतिश्रोतव्यः । तदाह पतञ्जलिः- "स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । " तथा हि ।


आप जैनों के आगम में मनुष्य को आप्त माना है। किन्तु उसका आप्तपना किसी भी तरह नहीं बनता। आज भी लाखों करोड़ों मनुष्य वर्तमान हैं, किन्तु उनमें कोई भी आप्त नहीं देखा जाता । यदि किसी तरह मनुष्य को आप्त मान भी लिया जाये तो उसे इष्ट तत्त्व का ज्ञान स्वयं तो नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नहीं देखा जाता । यदि दूसरे से ऐसा ज्ञान होता है तो वह दूसरा कौन है ? तीर्थकर है या अन्य कोई है ? यदि तीर्थकर है तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता है । यदि तीर्थक्कर को इष्ट तत्त्व का ज्ञान किसी तीसरे के द्वारा होता है तो उस तीसरे को इष्ट तत्त्व का ज्ञान चौथे के द्वारा होगा और चौथे को इष्ट तत्त्व का ज्ञान पाँचवें के द्वारा होगा । इस तरह अनवस्था दोष आ जाता है। अतः यदि अनवस्था दोष से बचना चाहते हैं और साथ ही साथ आप्त का सद्भाव भी चाहते हैं तो तत्त्व के उपदेष्टा सदाशिव पार्वती पति को ही मानना चाहिये । पतञ्जलि ऋषि ने भी कहा है - 'वह पहलों के भी गुरु हैं, क्योंकि काल के द्वारा उनका नाश नहीं होता' । और भी कहा है -

अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्छिवात्परमकारणात् ।
नादरूपं समुत्पनं शास्त्रं परमदुर्लभम्" ॥77॥
अशरीरी ,शान्त और परम कारण शिव से परम दुर्लभ नाद रूप शास्त्र की उत्पत्ति हुई ॥७७॥

तथाप्तेनैकेन भवितव्यम् । न ह्याप्तानामितरमाणिवद गणः समस्ति, संभवे वा चतुर्विंशतिरिति नियमः कौतस्कुत इति वन्ध्यास्तनंधयधैर्यव्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलयनं च परेषाम् । यतः


तथा आप्त एक ही होना चाहिये । अन्य प्राणियों के समूह की तरह आप्तों का समूह तो होता नहीं है । और यदि हो भी तो चौबीस संख्या का नियम कहाँ से आया ?'

इस प्रकार दूसरे मतवालों का उक्त कथन बन्ध्या के पुत्र के धैर्य की प्रशंसा करने के तुल्य व्यर्थ है, वे महान् मोह के समुद्र में डूबे हुए हैं, क्योंकि सदाशिव अशरीरी है अतः वह वक्ता नहीं हो सकता । और

वक्ता नैव सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान्
वैविध्यादपर तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् ।
शक्त्या चेत्परकीयया कथमसौ तद्वानसंबन्धतः .
संबन्धोऽपि न जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥78॥
शिव यद्यपि सशरीर हैं मगर वह रागी हैं - पार्वती के साथ रहते हैं, अतः उनका उपदेश प्रमाण नहीं माना जा सकता। यदि इन दोनों के सिवा किसी तीसरे को वक्ता मानते हो तो वह तीसरा किससे हुआ । यदि कहोगे कि शक्ति से हुआ, तो शक्ति तो भिन्न है, भिन्न शक्ति से वह शक्तिवान कैसे हो सकता है, क्योंकि उन दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि सम्बन्ध मानोगे तो विचार करने पर उनका कोई सम्बन्ध भी नहीं बनता है, अतः आपका शास्त्र निराधार ठहरता है क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता ॥78॥

संबन्धो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तरद्रव्यत्वात्, 'द्रव्ययोरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः। 'समवायलक्षणोऽपि न संबन्धः शक्तः पृथक्सिद्धत्वात्, 'अयुतसिद्धानां गुणगुण्यादीनां समवायसंबन्धः' इति वैशेषिकमैतिह्यम् ।


सदाशिव का शक्ति के साथ संयोग सम्बन्ध तो हो नहीं सकता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं है और 'संयोग सम्बन्ध द्रव्यों का ही होता है' ऐसा यौगों का सिद्धान्त है। तथा समवाय सम्बन्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि शक्ति तो शिव से पृथक् सिद्ध है-जुदी है और 'जो पृथक सिद्ध नहीं हैं ऐसे गुण गुणी वगैरह का ही समवाय सम्बन्ध होता है' ऐसा वैशेषिकों का मत है।

(भावार्थ – ऊपर शैवमतवादियों ने मनुष्य को आप्त मानने में आपत्ति दिखलाते हुए सदाशिव को ही आप्त और शास्त्र का उपदेष्टा मानने पर जोर दिया था। उसी का उत्तर देते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि सदाशिव तो अशरीरी है इसलिए वे वक्ता हो नहीं सकते, क्योंकि बोलने के लिए शरीरका होना जरूरी है उनके विना शब्दकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।यदि सशरीरी शिव को वक्ता माना जायेगा तो वह रागी हैं, पार्वती के साथ रहते हैं, अर्धनारीश्वर हैं, अतः उनका वचन प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। यदि किसी तीसरे को वक्ता माना जायेगा तो प्रश्न होता है कि वह तीसरा कहाँ से उत्पन्न हुआ। यदि कहा जायेगा कि शक्तिसे उत्पन्न हुआ तो शक्तिके साथ उसका सम्बन्ध बतलाना चाहिये। दो ही सम्बन्ध योग दर्शनमें माने गये हैं संयोग और समवाय ।ये दोनों ही सम्बन्ध शक्ति और शक्तिमान्के बीच नहीं बनते; क्योंकि संयोग दो द्रव्योंमें ही होता है किन्तु शक्ति द्रव्य नहीं है। तथा समवाय सम्बन्ध अभिन्नों में ही होता है किन्तु शक्ति शक्तिमान्से भिन्न है।)

(इस प्रकार सदाशिववादियों के शास्त्र को निराधार बतलाकर ग्रन्थकार, मनुष्य को आप्त मानने में जो आपत्ति की गई है, उनका निराकरण करते हैं-)

तत्त्वभावनयोद्भूतं जन्मान्तरसमुत्थया।
हिताहितविवेकाय यस्य ज्ञानत्रयं परम् ॥79॥
दृष्टादृष्टमवैत्यर्थ रूपवन्तमथावधेः।
श्रुतेः श्रुतिसमाश्रेयं वासौ परमपेक्षताम् ॥80॥
पूर्व जन्म में उत्पन्न हुई तत्त्व भावना से, हित और अहित की पहचान करने के लिए उत्पन्न हुए जिसके तीन ज्ञान-मति, श्रुत और अवधि-दृष्ट और अदृष्ट अर्थको जानते हैं, उनमें भी अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थों को ही जानता है और श्रुतज्ञान शास्त्र में वर्णित विषयों को जानता है। ऐसी अवस्था में इष्ट तत्त्व को जानने के लिए उसे दूसरेकी अपेक्षा ही क्या रहती है ? ॥79-80॥

(भावार्थ – पहले शैवमतवादी ने मनुष्य को आप्त मानने में आपत्ति करते हुए कहा था कि मनुष्य को इष्ट तत्त्वका बोध यदि तीर्थङ्करके द्वारा होता है तो तीर्थङ्कर को इष्ट तत्व का ज्ञान किसके द्वारा होता है ? इसका परिहार करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि तीर्थङ्क रके जन्म से ही तीन ज्ञान होते हैं। और वे तीनों ज्ञान पूर्व जन्म की भावना से उत्पन्न होते हैं, उनसे वह इष्ट तत्त्व को जान लेते हैं। बाद में मुनि होकर तपस्या के द्वारा कर्मों को नष्ट करके वे सर्वज्ञ हो जाते हैं ।तब उन्हें इष्ट तत्त्व को जानने के लिए दूसरे से सहायता लेने की जरूरत ही क्या है ? वे स्वयं ही जानकर संसार के प्राणियों को तत्त्वों का उपदेश देते है । उनके उपदेश से अन्य मनुष्यों को इप्ट तत्त्व का ज्ञान हो जाता है।)

(आगे कहते हैं-)

न चैतदसार्वत्रिकम् । कथमन्यथा स्वत एव संजात षट पदार्थावसायप्रसरे कणेचरे वाराणस्यां महेश्वरस्योलूकसायुज्यसरस्येदं वचः संगच्छेत्–'ब्रझैतुला नामेदं दिवौकसां दिव्यमद्भुतं ज्ञानं प्रादुर्भूतमिह त्वयि तद्वत्संविधत्स्व विप्रेभ्यः' ।


और यह बात कि तीर्थकर स्वयं ही इष्ट तत्त्व को जान लेते हैं, ऐसी नहीं है जिसे सब न मानते हों । यदि ऐसा नहीं है तो स्वतः ही छ पदार्थोंका ज्ञान होने पर कणाद-ऋषिके प्रति वाराणसी नगरी में उलूकका अवतार लेने वाले महेश्वर का यह कथन कैसे संगत हो सकता है—'हे कणाद ! तुझे देवों के ब्रह्मतुला नाम के दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई है इसे विप्रों को प्रदान कर । '

(भावार्थ-वैदिक पुराणों के अनुसार महेश्वर ने उल्लू का अवतार धारण करके कणाद ऋषि से उक्त बात कही थी। ऊपर शैवमतवादियों ने जैनों पर यह आपत्ति की थी कि दूसरे की सहायता के विना तुम्हारे तीर्थकरों को ज्ञान कैसे होता है, उसीका निराकरण करते हुए ग्रन्थकार ने बतलाया है कि तुम्हारे मत में भी कणाद ऋषि को स्वयं छः पदार्थों का ज्ञान होने का उल्लेख है। अतः यह आपत्ति कि बिना अन्य की सहायता के ज्ञान नहीं हो सकता, निराधार है।)

उपाये सत्युपेयस्य प्राप्तेः का प्रतिबन्धिता।
पातालस्थं जलं यन्त्रात्करस्थं क्रियते यतः ॥81॥
साधन सामग्री के मिलने पर पाने योग्य वस्तु की प्राप्ति में रुकावट ही क्या हो सकती है ? क्योंकि यंत्र के द्वारा पाताल में भी स्थित जल प्राप्त कर लिया जाता है ॥81॥

अश्मा हेम जलं मुक्ता द्रुमो वह्निः क्षितिर्मणिः ।
तत्तद्धतुतया भावा भवन्त्यद्भुतसंपदः ॥82॥
सँर्गावस्थितिसंहारग्रीष्मवर्षातुषारवत् ।
अनाद्यनन्तभावोऽयमाप्तश्रुतसमाश्रयः ॥83॥
पत्थर से सोना पैदा होता है। जल से मोती बनता है। वृक्ष से आग पैदा होती है और पृथ्वी से मणि पैदा होती है। इस तरह अपने-अपने कारणों से अद्भुत सम्पदा उत्पन्न होती है। जैसे उत्पत्ति, स्थिति और विनाश की परम्परा अनादि-अनन्त है, या ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु और शीत ऋतुकी परम्परा अनादि अनन्त है, वैसे ही आप्त और श्रुत की परम्परा भी प्रवाह रूप से चली आती है, न उसका आदि है और न अन्त । आप्त से श्रुत उत्पन्न होता है और श्रुत से आप्त बनता है ॥82-83॥

(शैव मतवादी ने यह आपत्ति की थी कि आप्त बहुत से नहीं हो सकते और यदि हों भी तो चौवीस का नियम कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-)

नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः।
तिथिताराग्रहाम्भोधिभूभृत्प्रभृतयो मताः ॥84॥
यदि वस्तुओं का बहुत्व नियत न हो तो तिथि, तारा, ग्रह, समुद्र, पहाड़ वगैरह नियत क्यों माने गये हैं ? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं फिर भी इनकी संख्या नियत है उसी तरह जैन तीर्थङ्करों की भी चौवीस संख्या नियत है ॥ 84॥

अनयैव दिशा चिन्त्यं सांख्यशाफ्यादिशासनम् ।
तत्त्वागमाप्तरूपाणां नानात्वस्याविशेषतः ॥85॥
इसी प्रकार से सांख्य और बौद्ध वगैरह के मतों का भी विचार कर लेना चाहिये। क्योंकि उनमें भी तत्त्व, आगम और आप्त के स्वरूपों में भेद पाया जाता है ॥85॥

जैनमेकं मतं मुक्त्वा द्वैताद्वैतसमाश्रयौ।
मार्गौसमाश्रिताः सर्वे सर्वाभ्युपगमागमाः ॥86॥
एक जैनमत को छोड़कर शेष सभी मतवालों ने या तो द्वैत मत को अपनाया है या अद्वैत मत को अपनाया है। और उनके आगमों में ऐसी बातें हैं जो सभी लोगों के द्वारा मान्य हैं ॥86॥

वामदक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतरसमाश्रयः ।
कर्मज्ञानगतो ज्ञेयः शंभुशाक्यद्विजागमः ॥87॥
शैवमत, बौद्धमत और ब्राह्मण मत वाममार्गी और दक्षिणमार्गी हैं, मंत्र तंत्र प्रधान भी हैं, तथा उसको न मानने वाले भी हैं और कर्मकाण्डी तथा ज्ञानकाण्डी हैं ॥87॥

(भावार्थ – शैवमत ब्राह्मण मत और बौद्धमत में उत्तर काल में वाम मार्ग भी उत्पन्न हो गया था, और वह वाम मार्ग मंत्र तंत्र प्रधान था तथा उसमें क्रिया काण्डका ही प्राधान्य था। दक्षिण मार्ग न तो मंत्र तंत्र प्रधान था और न क्रिया काण्ड को ही विशेष महत्त्व देता था। शैव मत का तो वाम मार्ग प्रसिद्ध है। बौद्ध मत के महायान सम्प्रदाय में से तांत्रिक वाम मार्ग का उदय हुआ था । वैसे बुद्ध के पश्चात् बौद्धमत हीनयान और महायान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया था। इसी प्रकार वैदिक ब्राह्मण मत भी पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा के भेद से दो रूप हो गया था। पूर्व मीमांसा यज्ञ यागादि कर्म काण्ड प्रधान है, और उत्तर मीमांसा, जिसे वेदान्त भी कहते हैं, ज्ञान प्रधान है।)

(अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्यों को देकर उसकी आलोचना करते हैं-)

यच्चैतत


तथा ( मनुस्मृति अ० 2 श्लोक 10-11 में ) जो यह कहा है -

श्रुति वेदमिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता।
ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥88॥
ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।
स साधुभिर्बहिः कार्यों नास्तिको वेदनिन्दकः ॥89॥
श्रुति को वेद कहते हैं और धर्म शास्त्र को स्मृति कहते हैं। उन श्रुति और स्मृति का विचार प्रतिकूल तकों से नहीं करना चाहिये क्योंकि उन्हीं से धर्म प्रकट हुआ है । जो द्विज युक्ति शास्त्र का आश्रय लेकर श्रुति और स्मृति का निरादर करता है, साधु पुरुषों को उसका बहिष्कार करना चाहिये; क्योंकि वेद का निन्दक होने से वह नास्तिक है ॥88-89॥

तदपि न साधु । यतः।


यह भी ठीक नहीं है क्योंकि--

समस्तयुक्तिनिर्मुक्तः केवलागेमलोचनः ।
तत्त्वमिच्छन्न कस्येह भवेद्वादी जयावहः ॥90॥
जो मतावलम्बी समस्त युक्तियों को छोड़कर केवल आगम के बल पर तत्त्व की सिद्धि करना चाहता है वह किसीको नहीं जीत सकता ॥90॥

(भावार्थ – मनुस्मृतिकार ने श्रुति और स्मृति में युक्ति लगाने का निषेध किया है किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि युक्ति के विना केवल आगम से तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि केवल आगम से ही तत्त्व की सिद्धि मानी जायेगी तब तो ऐसा व्यक्ति सबको जीत लेगा। अथवा सभी धर्म वाले अपने-अपने आगमों से अपने-अपने तत्त्व सिद्ध कर लेंगे। अतः युक्ति से नहीं घबराना चाहिए, जो बात विचार पूर्ण होती है उसे सब ही मानने को तैयार रहते हैं।)

सन्तो गुणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तुषु ।
पादेन तिप्यते ग्रावो रत्नं मौलौ निधीयते ॥91॥
श्रेष्ठो गुणैर्गृहस्थः स्यात्ततः श्रेष्ठतरो यतिः ।
यतेः श्रेष्ठतरो देवो न देवादधिकं परम् ॥92॥
गेहिना समवृत्तस्य यतेरप्यधरस्थितेः।
यदि देवस्य देवत्वं न देवो दुर्लभो भवेत् ॥93॥
सज्जन पुरुष गुणों से प्रसन्न होते हैं, अविचारित वस्तुओं से नहीं। देखो, पत्थर को पैर से ठुकराया जाता है और रत्न को मुकुट में स्थापित किया जाता है। अतः जो गुणों से श्रेष्ठ है वह गृहस्थ है, गृहस्थ से भी श्रेष्ठ यति है और यति से श्रेष्ठ देव है। किन्तु देव से श्रेष्ठ कोई नहीं है। जिसका आचरण गृहस्थ के समान है और जो यति से भी नीचे स्थित है, ऐसे देव को भी यदि देव माना जाता है तो फिर देवत्व दुर्लभ नहीं रहता ॥91-93॥

इस प्रकार उपासकाध्ययन में आप्त स्वरूप की मीमांसा नाम का दूसरा कल्प समाप्त हुआ।