+ स्थितिकरण -
चौदहवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

पुनः 'इष्टं धर्मे नियोजयेत्, तथा आतुरस्यागदकारोपयोग इवानिच्छतोऽपि जन्तोधर्मयोगः कशलैः क्रियमाणो भवत्यायत्यामवश्यं निःश्रेयसाय' इति जातमतिस्तपःपरिग्रहेऽपि सहपांसुक्रीडितत्वाच्चिरपरिचयरूढप्रणयत्वाश्चात्मनः प्रियसुहृदं पुष्पवतीभट्टिनीभर्तुरमात्यस्य शाण्डिल्यायनस्य नन्दनमभिनवविवाहविहितकङ्कणबन्धनं पुष्पदन्ताभिधानमेतदाय तनानुगमनेन स्वामिपुत्रत्वात्प्रतिपन्नमहामुनिरूपत्वाच्चाचरिताभ्युत्थानं हस्तेनावलम्ब्य पुनः 'अतोऽतश्च प्रदेशान्मां व्यावर्तयिष्यत्ययं भगवान्' इति सहानुसरन्तमवाप्तवन्तं च गुरूपान्तम् , 'भदन्त, एष खलु महानुभावतालतालम्बनतरुः स्वभावेनैव भवभीरुभॊगानुभवने विरक्तचित्तः सर्वसंयतवृत्तार्थी भगवत्पादमूलमायातः' इति सूचयित्वा भगवतोऽभ्यणे कामकरिकदलिकावहीभारमिव मूर्धजनिकरमपनाय्य दीक्षां ग्राहयामास । सोऽपि तदुपरोधानेपाहीक्षामादाय हृदयस्याविदितवेदितव्यत्वादनङ्गप्रहग्रसितत्वाश्च पञ्जरपात्रः पैतत्रीव मन्त्रशक्तिकीलितप्रतापः पृदाकुरिव गाढबन्धनालानितो व्यालशुण्डाल इव चाहर्निशं वारिषेणऋषिणा रक्ष्यमाणोऽपि।


राजा श्रेणिक का मन्त्री शांडिल्यायन था और उसकी पत्नी पुष्पवती थी। उनके पुष्पदन्त नामका पुत्र था। उसका नया विवाह हुआ था। वह वारिषेण का अत्यन्त प्रिय मित्र था, बचपन में दोनों साथ खेले थे और चिरपरिचित होने से दोनों में गाढ़ स्नेह था। जब वारिषेण मुनि हो गये तो उनका विचार अपने मित्र पुष्पदन्त को भी मुनि बनाने का हुआ। वे सोचने लगे कि शास्त्रकारों का कहना है कि 'अपने प्रियजन को धर्म में लगाना चाहिए' तथा जैसे रोगी का वैद्यसे इलाज कराना आगे लाभदायक होता है वैसे ही न चाहने वाले जीव को भी समझदार मनुष्य यदि धर्म में लगा दें तो उत्तरकाल में वह अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति का कारण होता है ।यह सोचकर वारिषेण मुनि अपने मित्र के घर गये और स्वामी के पुत्र होने के कारण तथा महामुनि का रूप होने के कारण पुष्पदन्त उन्हें देखकर खड़ा हो गया और उनके साथ यह सोचता हुआ चला कि वह मुझे अमुक स्थान से लौटा देंगे।

उसे साथ लेकर वारिषेण मुनि अपने गुरु के पास आये और बोले-'भगवन् ! यह महानुभाव स्वभाव से ही संसारभीरु है तथा भोगों के भोग से इसका चित्त विरक्त हो गया है ।महाव्रत धारण करने की इच्छा से यह आपके चरणों में आया है।

वारिषेण ने इतना निवेदन करने के बाद पुष्पदन्त को गुरु के सम्मुख केशलोंच करा के जिनदीक्षा धारण करा दी । किन्तु उसका हृदय तो काम से पीड़ित था अतः पिंजरे में बन्द पक्षी की तरह, मंत्र की शक्ति से जिसका प्रताप कीलित कर दिया गया है उस सर्प की तरह तथा मजबूत बन्धन से बँधे हुए दुष्ट हाथी की तरह वारिषेण मुनि के द्वारा रात-दिन देखरेख रखने पर भी कभी वह अपनी स्त्री के मुख का विचार करता था।

अलकवलयरम्यं भ्रलतानर्तकान्तं
नवनयनविलासं चारुगण्डस्थलं च ।
मधुरवचनगर्भे स्मेरबिम्बाधरायाः
पुरत इव समास्ते तन्मुखं मे प्रियायाः ॥197॥
वह केशों से कैसा सुन्दर लगता है और उसकी भ्रुकुटियाँ तो क्या गजब की हैं, आँखें कैसी मनोहारिणी हैं, कपोल कितने सुन्दर हैं, कैसी मीठी-मीठी बात करती है । मेरी प्यारी का मुख - तो मुझे ऐसा दीखता है मानो वह मेरे सामने ही मौजूद है' ॥197॥

कर्णावतंसमुखमण्डनकण्ठभूषा
वक्षोजपत्रजघनाभरणानि रागात् ।
पादेष्वलक्तकरसेन च चर्चनानि
कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एव धन्याः ॥198॥
कभी वह सोचता 'जो अपनी प्रियतमाओं के कानों को कर्ण फूल से सजाते हैं, मुख को अलंकारों से भूषित करते हैं, कण्ठ में कण्ठमाल पहिनाते हैं, उरोजों पर पत्र बाँधते हैं, जघन भाग में करधौनी धारण कराते हैं तथा पैरों में महावर लगाते हैं, वे ही धन्य हैं ॥198॥

लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलायाः
स्फारस्मरोत्तरलिताधरपल्लवाया ।
उत्तुङ्गपीवरपयोधरमण्डलाया
स्तस्या मया सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥199॥
कभी वह सोचता 'जिसके नेत्रकमल लीला के विलास से शोभित हैं, अधरपल्लव काम के वेग से काँपते हैं, उरोज उन्नत और स्थूल हैं, उसका मेरे साथ समागम कब होगा' ॥199॥

किं च


चित्रालेखनकर्मभिर्मनसिजन्यापारसारामृतै
पुढाभ्यासपुर:स्थितप्रियतमापादप्रणामक्रमैः।
स्वप्ने 'संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागमै
रित्थं वेषमुनिर्दिनानि गमयत्युत्कण्ठितः कानने ॥200॥
कभी वह चित्र बनाता, कभी अत्यन्त अभ्यास के कारण यह अनुभव करता कि उसकी प्रियतमा सामने खड़ी है और वह उसके चरणों में प्रणाम कर रहा है। कभी स्वप्न में संगमका सुख भोगता तो कभी वियोग का कष्ट उठाता। इस प्रकार वह मुनिवेषी बड़ी उत्कण्ठा के साथ जंगल में दिन बिताता था ॥200 ॥

इति निर्बन्धेन ध्यायन् द्वादश समाः समानषीत् शुरदेवभट्टारकोऽप्याभ्यां सह तेषु-तेषु विषयेषु तीर्थकृतां पञ्चकल्याणमङ्गलानि स्थानानि वन्दित्वा पुनर्विहारवशात्तत्रैव जिनायतनोत्तसितोपान्तशैलचूले पञ्चशैलपुरे समागत्यात्मनो वारिषेण ऋषेश्च तदिवसे पर्युपासितोपवासत्वात्तं पुष्पदन्तमेकाकिनमेव प्रत्यवसानायादिदेश। तदर्थमादिष्टेन च तेन चिन्तितं चिरात्कालात्खल्वेकस्मादपमृत्योर्जीवनद्धरितो ऽस्मि । संप्रति हि मे नूनमनूनानि पुण्यान्यवेक्ष्य दीक्षां मुमुक्षुणा मञ्ज पाशपरिक्षेपक्षरितेनेव पक्षिणा पलायितुमारब्धम् । वारिषेणस्तस्य तथा प्रस्थानात्कृतोदर्क वितर्त्य 'अवश्यमयं जिनरूपं जिहासुरिव सौत्सुक्यं विक्रमते, तदेष कषायमुष्यमाणधिषणः समयप्रतिपालनाधिकरणैर्न भवत्युपेक्षणीयः' इत्यनुध्यायावा तमनुरुध्यैतत्स्थापनाय जनकनिकेतनं जगाम। चेलिनीमहादेवी पुत्रं मित्रेण सत्रमुपढौकमानमवेक्ष्य तदभिप्रायपरीक्षार्थ सरागं वीतरागं चासनमयच्छत् । वारिषेणस्तेन समं चरमोपचारं विष्टरमलंकृत्य 'अम्ब, समाहूयतां समस्ता अप्यात्मीयाः स्नुषाः। तदनु वनदेवता इव प्रसूनोत्तंसोत्तरङ्गितकुन्तलारामाः, कल्पलता इव मणिभूषणरमणीयाङ्गनिर्गमाः, प्रावृष इव समुन्नद्धपयोधराविद्धमध्यभागाः, सकलजगल्लावण्यलवलिपिलिखिता इव सुभगभोगायतनाभोगाः, कङ्केल्लिकाननक्षितय इव पादपल्लवोल्लासितविहारविषयाः, कमलिन्य इव मणिमञ्जीरमणितोन्मदमरालमण्डलस्खलितचलेनजलेशयाः, स्वकीयरूपसंपत्तिरस्कृतत्रिभुवनरामारामणीयकाः सलीलमहमहमिकोत्सुकाः समागत्य समन्तात्परिबवः पुण्यदेवता इव ताः स्ववासिन्यः । 'अम्ब, मद्भातृजाया सुदत्यप्याकार्यताम्। ततः सन्ध्येव धातुरक्ताम्बरचराटोपा, तपःश्रीरिव विलुप्तकुन्तलकलापा, भव्यजनमतिरिव विभ्रमभ्रांशिदर्शना, हिमोन्मथिता कमलिनीव क्षामच्छायापघना, शरदिव दीनपयोधरभरा, स्वष्वाङ्गकरङ्का कृतिरिव प्रकटकीर्कंसनिकरा सकलसंसारसुखव्यावृत्तिनीतिमूर्तिमती वैराग्य. स्थितिरिव विवेश। पुष्पदन्तहृदयकन्दलोल्लासवसुमती सुदती वारिषेणोऽवधार्य 'मित्र, सेयं तव प्रणयिनी यन्निमित्तमद्यापि न संपद्यसे मनोमुनिरिति। एताश्चैवंविधकायास्तव भ्रातृजायाः, तथैते च वयं तव समक्षोदयं समाचरिताभिजातजनोचितचरिताः' । पुष्पदन्तः


ऐसा करते-करते बारह वर्ष बीत गये। एक बार शूरदेव गुरु अपने शिष्य वारिषेण और पुष्पदन्त के साथ तीर्थकरों के पञ्चकल्याणकों के स्थानों की वन्दना करके वूमते-घूमते जिनमन्दिरों से सुशोभित उसी पञ्चशैलपुर में आकर ठहरे। उस दिन वारिषेण मुनि का प्रोषधोपवास था ।अतः उन्होंने पुष्पदन्त को अकेले ही जाकर भोजन कर आनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर पुष्पदन्त ने सोचा कि बहुत काल के पश्चात् इस अपमृत्यु से जीवन का उद्धार हुआ है। आज मेरे बहुत पुण्य का उदय है।' यह सोच दीक्षा को छोड़ने की.इच्छा से, बन्धनमुक्त हुए पक्षी की तरह वह वहाँ से भागा। वारिषेण ने उसे इस तरहसे भागते हुए देखकर विचार किया कि 'यह अवश्य ही जिन दीक्षा छोड़ देने के लिए उत्सुक जान पड़ता है। इसकी बुद्धि मोह से भ्रष्ट हो गई है, अतः जिनागम के पालकों को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ' ऐसा सोचकर भागते हुए मित्र को रोककर उसको स्थिर करने के लिए वे अपने पिता के घर गये। चेलनी रानी ने मित्र के साथ अपने पुत्र को आता हुआ देखकर उसके मन की परीक्षा करने के लिए दो आसन बिछा दिये। उनमें एक आसन रागियों के योग्य था और दूसरा विरागियोंके योग्य । वारिषेण अपने मित्र के साथ विरागियों के योग्य आसन पर बैठ गया और बोला 'माता ! अपनी सब बहुओं को बुलाओ।'

अपनी रूप-सम्पदा से तीनों लोकों की सुन्दर स्त्रियों को तिरस्कृत करने वाली सभी बहुएँ बड़ी उत्सुकता के साथ आकर चारों ओर बैठ गईं। केशपाश में गूंथे गये फूलों से वे वन देवताके समान प्रतीत होती थीं, उनके अंग मणियों के भूषणों से शोभित थे अतः वे कल्पलता के तुल्य प्रतीत होती थीं, उन्नत पयोधरों (स्तनों) से उनका मध्यभाग पराजित हो गया था अर्थात् मध्यभाग कृश था, अतः वे वर्षाऋतुके तुल्य प्रतीत होती थी क्योंकि वर्षाऋतु में भी आकाश में पयोधर ( मेघ ) उमड़े रहते हैं। उसके बाद वारिषेण बोले- 'माता ! मेरी भ्रातृवधू सुदती को भी बुलाओ।' –

आज्ञा पाते ही सुदती भी आ गई। उसके केशकलाप अस्त-व्यस्त थे, हिमपात से कुमुलाई हुई कमलिनी की तरह उसकी मुखश्री म्लान हो गई थी। शरीर में हड्डियाँ ही दिखाई देती थीं। वह ऐसी मालूम देती थी मानो संसार के समस्त सुखों से उदासीन मूर्तिमती वैराग्यविभूति ही है।

पुष्पदन्त के हृदयरूपी नवांकुर के उल्लास के लिए पृथ्वी के तुल्य सुदती को जानकर वारिषेण बोले-'मित्र ! यही तुम्हारी वह प्रियतमा है जिसके कारण अब तक भी तुम मनसे साधु नहीं बन सके हो ।और ये सब तुम्हारी भ्रातृवधू हैं ।हम सब तुम्हारी सेवाके लिए तैयार हैं।

पुष्पदन्त सोचने लगा-

स्नानानुलेपवसनाभरणप्रसून
ताम्बूलवासविधिना क्षणमात्रमेतत् ।
आधेयभावसुभगं वपुरङ्गनानां
नैसर्गिकी तु किमिव स्थितिरस्य वाच्या ॥201॥
स्त्रियों का शरीर स्नान, लेप, वस्त्र, आभूषण, फूल, पान, सुगन्ध आदिके द्वारा क्षणमात्र के लिए सुन्दर हो जाता है। यदि वह अपनी स्वाभाविक स्थितिमें रहे तब तो उसकी दशा का कहना ही क्या है ॥201॥

इत्यसंशयमाशय्य स्त्रैणेषु सुखकरणेषु विचिकित्सासज्जा लज्जामभिनीय 'हंहो निकोमनिरुद्धमकरध्वजोद्धवविधुरबान्धव संसारसुखसरोजोत्सारनीहारायमाणचरण वारिषेण, पर्याप्तमत्रावस्थानेन । प्रकामं शेकलितकुसुमात्ररसरहस्य वयस्य, इदानी यथार्थनिर्वेदावनिर्मनोमुनिरस्मीति चाधाय विशुद्धहृदयौ द्वावपि तौ चेलिनीमहादेवीमभिनन्द्योपसय च गुरुपादोपसल्यं निःशल्याशयौ साधु तपश्चक्रतुः । भवति चात्र श्लोकः -


ऐसा निःसन्देह विचारकर तथा स्त्रियों के विषयमें ग्लानि पूर्ण लज्जा का अभिनय करता हुआ वह बोला-'हे कामजेता और संसार के सुखरूपी कमलों के लिए बर्फ के समान वारिषेण ! यहाँ ठहरना वृथा है। कामरस के रहस्य को खण्ड-खण्ड कर डालनेवाले मेरे मित्र ! इस समय मुझे सच्चा वैराग्य हुआ है और मैं मनसे मुनि हूँ। दोनों विशुद्ध हृदय मित्रों ने रानी चेलनी का अभिनन्दन किया और गुरु के चरणों में आकर निशल्य होकर तपस्या में लीन हो गये। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -

सुदतीसंगमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् ।
वारिणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे ॥202॥
वारिषेण ने सुदती में आसक्त तपस्वी पुष्पदन्त की रक्षा की और उसे संयम में लगाया ॥202॥

इत्युपासकाध्ययने स्थितिकारकीर्तनो नाम चतुर्दशः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में स्थितिकरण का वर्णन करने वाला चौदहवाँ कल्प समाप्त हुआ।