+ वारिषेणकुमार का प्रव्रज्याव्रजन -
तेरहवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

अब स्थितिकरण अंगको कहते हैं-


परीषह व्रतोद्विग्नमजातागमसङ्गमम् ।
स्थापयेद्भस्यदात्मानं समयी समयस्थितम् ॥190॥
तपसः प्रत्यवस्यन्तं यो न रक्षति संयतम् ।
नूनं स दर्शनाद्वाह्यः समयस्थितिलङ्घनात् ॥191॥
परीषह और व्रत से घबराया हुआ तथा आगम के ज्ञान से शून्य कोई साधर्मी भाई यदि धर्म से भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टी को उसका स्थितिकरण करना चाहिए । जो तप से भ्रष्ट होते हुए मुनि की रक्षा नहीं करता है, आगम की मर्यादा का उल्लंघन करने के कारण वह मनुष्य नियम से सम्यग्दर्शन से रहित है ॥190-191॥

नवैः संदिग्धनिर्वा हैविदध्याद्गणवर्धनम् ।
एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥192॥
यतः समयकार्यार्थी नानापश्चजनाश्रयः ।
अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥193॥
उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद् दूरतरो नरः ।
ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥194॥
जिनके निर्वाह में सन्देह है ऐसे नये मनुष्यों से भी संघ को बढ़ाना चाहिए। केवल एक दोष के कारण तत्त्वज्ञ मनुष्य को छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि धर्म का काम अनेक मनुष्यों के आश्रयसे चलता है ।इसलिए समझा-बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसे उसमें लगा देना चाहिए। उपेक्षा करने से मनुष्य धर्म से दूर होता जाता है और ऐसा होने से उस मनुष्य का संसार सुदीर्घ होता है और धर्म की भी हानि होती है ॥192-194॥

(भावार्थ – ऊपर स्थितिकरण अंग का वर्णन करते हुए पं० सोमदेव सूरिने बहुत ही उपयोगी बातें कही हैं । धर्म से डिगते हुए मनुष्यों को धर्म के प्रेमवश धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण अंग कहलाता है। धर्म के दो रूप व्यावहारिक कहे जाते हैं, एक श्रद्धान और दूसरा आचरण । यदि किन्हीं कारणों से किसी साधर्मी का श्रद्धान शिथिल हो रहा हो या वह अपने आचरण से भ्रष्ट होता हो तो धर्मप्रेमी का यह कर्तव्य है कि वह उन कारणों को यथाशक्ति दूर करके उस भाई को अपने धर्म में स्थिर रखने की भरसक चेष्टा करे। डिगते हुए को स्थिर करने के बदले भला-बुरा कहकर या उसकी उपेक्षा करके उसे यदि धर्मसे च्युत होने दिया जाये तो इससे लाभ तो कुछ नहीं होता उल्टे हानि ही होती है। क्योंकि एक तो धर्म से भ्रष्ट होकर वह मनुष्य पाप-पंक में और लिप्त होता जाता है और इस तरह उसका भयंकर पतन हो जाता है और दूसरी ओर संघमें से एक व्यक्तिके निकल जाने से धर्म की भी हानि होती है । क्योंकि कहा है कि धर्म का पालन करने वालोंके विना धर्म नहीं रह सकता। यदि हमें अपने धर्म को जीवित रखना है और उसकी उन्नति करना है तो हमें अपने साधर्मी भाइयों के सुख-दुःख का तथा मानापमान का ध्यान रखकर ही उनके साथ सदा सद्व्यवहार करते रहना चाहिए तथा अपनी ओ रसे कोई भी ऐसा दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे उनके हृदय को चोट पहुँचे। क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि झगड़ा तो परस्पर में होता है और उसका गुस्सा निकाला जाता है मन्दिरपर । लड़-झगड़कर लोग मन्दिर में आना छोड़ देते हैं। पूजन करते समय कहा-सुनी हो जाये तो पूजन करना छोड़ देते हैं ।इस तरह की बातों से कषाय बढ़ जाने के कारण मनुष्य हिताहित को भूल जाता है और उससे अपना और दूसरोंका अनिष्ट कर बैठता है, अतः ऐसे प्रसंगों पर शान्ति से काम लेना चाहिए। इसी तरह जो पंच होते हैं उनका उत्तरदायित्व बहुत बड़ा होता है, जरा जरा-सी बातों पर किसी को जातिच्युत कर देना, किसी का मन्दिर बन्द कर देना धर्म की हानि का ही कारण होता है। ऐसे समयमें जब लोग धर्म से विमुख होनेके लिए तैयार बैठे हों तब तो इस प्रकार के दण्डों का उल्टा ही परिणाम होता है। दण्ड का प्रयोग औषध की तरह करना चाहिए। जैसे वैद्य रोगी के रोग के अनुकूल दवा देकर उसे रोगमुक्त करने की ही चेष्टा करता है वैसे ही पञ्चों को भी अपराधी के अपराध और उसके निदान को देख-भाल करके ही उसे ऐसा दण्ड देना चाहिए जिससे उसका सुधार हो और आगे वह वैसा अपराध न कर सके। जाति और धर्म से बहिष्कार तो अत्यन्त गुरुतर अपराधों के लिए ही किया जाना चाहिए। इस तरह एक ओर तो मौजूदा साधर्मी भाइयों को बनाये रखने की चेष्टा करनी चाहिए और दूसरी ओर ऐसे नये मनुष्यों को भी धर्म में दीक्षित करके धर्म की वृद्धि करनी चाहिए जिनसे हमें थोड़ी-सी भी आशा हो कि ये इसमें खप सकेंगे। इस प्रकार पुराने और नये साधर्मी भाइयों का स्थितिकरण करते रहने से धर्म के नष्ट हो जानेका भय नहीं रहता। इस सम्बन्धमें एक कथा है, उसे सुनें -)

स्थितिकरण अंग में प्रसिद्ध वारिषेण की कथा


श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-मगधदेशेषु राजगृहापरनामावसरे पञ्चशैलपुरे चेलिनीमहादेवीप्रणयक्रेणिकस्य श्रेणिकस्य गोत्राकलत्रस्य पुत्रः सकलवैरिपुराभिषेणो वारिषेणो नाम । स किल कुमारकाल एव संसारसुखसमागमविमुखमानसः परमवैराग्योद्गुणः पूर्णनिर्णयरसः श्रावकधर्माराधनधन्यधिषणतया गुरूपासनसंवीणतया च सम्यगवसितोपासकाध्य यनविधिराश्चर्यशौर्यनिधिरेकदा प्रेतभूमिषु भूतवासरविभावर्या रात्रिप्रतिमास्थितो बभुव । अत्रावसरे क्षपायाः परिणताभोगे खलु मध्यभागे मगधसुन्दरीनामया पण्याङ्गनयात्मन्यतीवासक्तचित्तवृत्तिप्रसरो मुगवेगनामा वीरः शयनतलमापन्नः सन्नेवमुक्तः–'राजश्रेष्ठिनो धनदत्तनामनिष्ठस्य कीर्तिमतीनामायाः प्रियतमायाः स्तनमण्डॅनोदारमलङ्कारसारं हारमिदानीमेवानीय यदि विश्रीणयसि, तदा त्वं मे रतिरामः, अन्यथा प्रणयविरामः' इति । सोऽप्यवशानङ्गवेगो मृगवेगस्तद्वचनादेव तदायतनानिःसृत्याभिसृत्य च निजकलाबला- , तस्य धनदत्तस्यागारमाचरितहारापहारस्तत्किरणनिकरनिश्चितचरणचारस्तलारानुचरैस्नुसृतो मृगायितुमसमर्थस्तस्य व्युत्सर्गवेषमुपेयुषो वारिषेणस्य पुरतो हारमपहाय तिरोदधे। "तदनुचरास्तत्प्रकाशविशेषवशात् 'वारिषेणोऽयं ननु राजकुमारः पलायितुमशक्तः पित्रोः श्रावकत्वादिमामहत्प्रतिमासमानाकृति प्रतिपद्य पुरो निहितहारः समास्ते' इत्यवमृश्य प्रविश्य च विश्वम्भराधीशवेश्मनिवेशमेतत्पितुः प्रतिपादितवृत्तान्ताः।


मगध देश में पञ्चशैलपुर नाम का नगर है, जिसे राजगृही भी कहते हैं। उसमें राजा श्रेणिक राज्य करते थे, उनकी पट्टरानी चेलिनी थी। राजा श्रेणिक के समस्त वैरियों के नगरों को जीतनेवाला वारिषेण नामका पुत्र था। कुमार अवस्था से ही वह सांसारिक सुखों से विमुख होकर श्रावक धर्म का पालन करता था और ऐसा करने से तथा गुरुओं की उपासना में संलग्न होने से उसे श्रावकाचार का अच्छा परिज्ञान हो गया था। रात्रि के समय एक दिन वह शूर-बीर स्मशान भूमि में ध्यानमग्न था.। उसी रात के मध्यमें मृगवेग नाम का एक वीर जब मगध सुन्दरी नाम की वेश्याके शयन-कक्षमें पहुंचा तो वेश्या ने कहा-'राजश्रेष्ठी धनदत्त की पत्नी कीर्तिमती के गले का हार इसी समय लाकर यदि मुझे दोगे तो तुम मेरे प्रेम के स्वामी हो, अन्यथा हमारे तुम्हारे प्रेम का आज अन्त है।

यह सुनते ही कामुक मृगवेग वेश्या के घर से निकलकर धनदत्त के घर पहुंचा और अपनी चतुराई से उसके घर में घुस हार को चुरा जैसे ही चला वैसे ही उस हार की किरणों के प्रकाश से नगर के सिपाहियों ने उसे देख लिया और वे उसके पीछे दौड़े । अपने को दौड़ने में असमर्थ जानकर मृगवेग ने वह हार कायोत्सर्ग से स्थित वारिषेण के आगे डाल दिया और स्वयं छिप गया।

जब सिपाही वहाँ पहुँचे तो उन्होंने हार के प्रकाशमें वारिषेण को पहचाना। उन्होंने सोचा कि राजकुमार के माता-पिता श्रावक हैं अतः भागने में असमर्थता देख राजकुमार ने अपने आगे हार रखकर जिनेन्द्र की प्रतिमाके समान अपना रूप बना लिया है। यह सोच वे सब राजमहल में आये और राजा श्रेणिक से सब समाचार निवेदन कर दिया।

दण्डो हि केवलो लोकं परं चेमं च रक्षति ।
राज्ञा शत्रौ च पुत्रे च यथादोषं समं धृतः ॥195॥
नीति में कहा है कि – राजा के द्वारा शत्रु और पुत्र को अपराध के अनुसार समान रूप से दिया गया दण्ड इस लोक की और परलोक की भी रक्षा करता है ॥195॥

इति वचनात् 'नहि महीभुजां गुणदोषाभ्यामन्यत्र मित्रामित्रव्यवस्थितिः, तदस्य रत्नापहारोपहतचरित्रस्य पुत्रशत्रोर्न प्राणप्रयाणादपरश्चण्डो दण्डः समस्ति' इति न्यायनिष्ठुरतावेशात्तजनकादेशादागत्य तं सदाचारमहान्तं प्रहरन्तः शरविशरान्प्रसूनशेखरतां भ्रमिल मण्डलानि कर्णकुण्डलतां कृपाणनिकरान्मुक्ताहारतामेवमपराण्यप्यस्त्राणि भूषणतामनुसरन्ति, निबुध्य तद्धयानधैर्यप्रवृद्धप्रमोदतया स्वयमेव पुरदेवताकरविकीर्यमाणामरतरुप्रसवोपहारमम्बरचरकुमारास्फाल्यमानानकनिकरमनिमिषनिकायकीय॑मानानेकस्तुतिव्यतिकरमि - तस्ततो महामहोत्सवावतारं च निचौय्य सत्वरमतिभीतविस्मितान्तःकरणाः श्रेणिकधरणोश्वरायेदं निवेदयामासुः। नरवरः सपरिवारः सोत्तालं तत्रागतः सन्कुमाराचारानुरागरसोत्सारितमृतिभीतिसंगान्मृगवेगादवगतामूलवृत्तान्तः साधुं तं कुमारं क्षमयामास । नृपनन्दनोऽपि प्रतिज्ञातसमयावसाने 'प्राणिनां सुलभसंपाताः खलु संसारे व्यसनविनिपाताः तदलमत्र कालकवलनावलम्बेन विलम्बेन । एषोऽहमिदानीमवाप्तयथार्थमनीषोन्मेषस्तावदात्महितस्योपस्करिष्ये' इति निश्चयमुपश्लिष्याभाष्य पितरमापिष्य च बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाग्रहमाचार्यस्य सुरदेवस्यान्तिके तपो जग्राह । भवति चात्र श्लोकः -


अतः राजाओं के लिए जो गुणी है वह मित्र है और जो दोषी है वह शत्रु है। इसलिए रत्नहार को चुराने वाला मेरा पुत्र भी मेरा शत्रु है और मृत्यु के सिवा दूसरा कोई भयानक दण्ड है नहीं। यह विचारकर राजा श्रेणिक ने कठोर बनकर अपने पुत्र की मृत्यु की आज्ञा दे दी। राजा की आज्ञा पाकर वे सिपाही स्मशान भूमि में आये और उस महान् सदाचारी वारिषेण के ऊपर शस्त्र-प्रहार करने लगे। शस्त्र प्रहार करते ही बाण तो फूलों का मुकुट बन गये। चक्र कानों के कुण्डल बन गये, तलवारें मोतियों का हार बन गई। इस तरह अन्य भी अस्त्र भूषणरूप हो गये। यह समाचार जानकर और वारिषेण के ध्यान और धैर्य से प्रसन्न होकर नगर देवता ने स्वयं ही पुष्पों की वर्षा की, विद्याधर कुमारों ने दुन्दुभि बाजे बजाये और देवताओं ने वारिषेणकी बहुत स्तुति की ।जब सिपाहियों ने यह सब महामहोत्सव देखा तो वे बड़े डरे और राजा श्रणिक से जाकर उन्होंने सब समाचार कहा राजा जल्दीसे परिवार के साथ वहाँ आया। वारिषेण के चारित्र का चमत्कार देखकर मृगवेग चोर को भी उससे बड़ा स्नेह उत्पन्न हुआ और वह मृत्यु का भय छोड़कर वहाँ आया तथा उसने हार की चोरीका सब हाल राजा श्रेणिक से कहा। राजा श्रेणिक ने कुमार को क्षमा कर दिया।

वारिषेण ने यह सोचकर 'संसार में प्राणियों पर संकट आना सुलभ है अतः मृत्यु की प्रतीक्षा करने से क्या लाभ ।' यह निश्चय कर लिया था कि चूंकि मुझे अब सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई है इसलिए अब मैं आत्मा का कल्याण करूँगा। अतः उसने अपने पिता पर अपना निश्चय प्रकट कर दिया और बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर आचार्य सुरदेव के समीप में जिन-दीक्षा ले ली।

इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -

विशुद्धमनसां पुंसां परिच्छेदपरात्मनाम् ।
किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सदाचारखिलैः खलैः ॥196॥
सदाचार को बिगाड़ने वाले दुष्ट मनुष्यों के द्वारा किये गये विघ्न, विचार में तत्पर विशुद्धमन वाले मनुष्यों का क्या कर सकते हैं ? ॥196॥

इत्युपासकाध्ययने वारिषेणकुमारप्रव्रज्याव्रजनो नाम त्रयोदशः कल्पः ।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में वारिषेणकुमार का प्रव्रज्याव्रजन नामक तेरहवाँ कल्प समाप्त हुआ ।