ग्रन्थ :
पुनर्बालभावाच्छोणच्छायकायः कोलिपल्लव इव धातकीप्रसवस्तबक इवारुणमणिकन्दुक इव च बन्धूनामानन्दनिरीक्षितामृतपीथमन्थरितमुखः सखेलं करपरम्परया संचार्यमाणः क्रमेणोत्तानशयदरहसितजानुचक्रमणगद्दालापस्पष्टक्रियापञ्चकस्थामवस्थामनुभूय मरुमार्ग इव छायापादपेन, छायापादप इव जलाशयेन, जलाशय इव कमलाकरेण, कमलाकर इव कलहंसनिवहेन, कलहंसनिवह इव रामासमागमेन, रामासमागम इव च स्मरलीलायितेन, तरुणीजनमनोमृगप्रमदवनेन यौवनेनालंचके। तदनु वाढं प्ररूढप्रौढयौवनावतारसारो वज्रकुमारः पितुर्मातुश्च वंशनिवेशानवद्याभिर्विद्याभिः प्रवलितप्रतापगुप्तः प्राप्तस्त्रचरलोकाधिक्यः सुवाक्यमूर्तिनामधामस्य मामस्य मदनमदपण्यतारुण्यलावण्यारण्यवनदेवतावतरवसुमतीमिन्दुमती दुहितरं परिणीय मणिकुण्डल-रत्नशेखर-माणिक्य-शिखण्ड-किरीट कीर्तन-कौस्तुभ-कर्णपूरपुरःसरैर्नभश्चरकुमारैरनुसृतस्तं पूर्वापरावारपारतरङ्गदन्तुरकन्दराधरं क्रीडारसवर्धनोद्धरं विजयाधुमहीधरम ध्यास्य विरविहायश्चरीपरिमलनम्लानमृणालजलेजमशोकदलशय्यादयितासाद्यविद्याधरीसुरतपरिमलवहलमिदमपवनलतास्थानं कन्दकविनोदपरिणताम्बरचरीचरणालतकोडितमंद स्तमालमलालवालालयमेवमिदं रमणीयमेतन्मनोहरमदश्च सुन्दरमटनीध्रतटमिति निध्यायन् समाचरितस्वैरविहारः पुनः प्राप्तहिमवगिरिप्राग्भारः खेचरीलोचनचन्द्रस्य पुरेन्द्रस्याङ्गवतोयुवतिप्रीतिधाम्नो गरुडवेगनाम्नो विद्याधरपतेरतिशयरूपनिरूपणपात्री प्रियपुत्र पवनवेगानामसङ्गां प्रालेयाचलमेखलाखलतिकलतालयनिलीनाङ्गां बहुरूपिणों नाम निपद्यां विद्यामाराधयन्तीमनयैवं विघ्नविघ्नया जाताजगररूपया-विद्यया निगीर्णवदनामुपलक्ष्य परोपकारविचक्षणस्ताय॑विद्यया तमेतल्लपनाविलतालुं मायाशयालुं वित्रासयामास । पवनवेगा तत्प्रत्यूहाभोगापगमानन्तरमेव विद्यायाः सिद्धिं प्रपद्य 'अवश्यमिह जन्मन्ययमेव मे कृतप्राणत्राणावेशः प्राणेशः' इति चेतस्यभिनिविश्य पुनरस्यैव नीहारमहीधरस्य नितम्वतीरिणीपर्यन्ते सूर्यप्रतिमां समाश्रितवतो भगवतस्तपःप्रभावसंपादितसमस्तसत्त्वव्यापदन्तस्य संयतस्य पादपीठोपकण्ठे पठतस्तवेयं सेत्स्यतीत्युपदेशावेशाभिनवमाराय वज्रकुमाराय गगनगम नाङ्गनाजीवितभूतामभिमतार्थसाधनपर्याप्ति प्राप्ति विद्यां वितीर्य निजनगर्या पर्यटत् । वज्रकुमारस्तथैव तत्सूरिसमक्षं फेनमालिनीकूले विद्यां प्रसाध्यासाध्यसाधनप्रवृद्धपराक्रमस्तमक्रमविक्रमाल्पीभूतदेवं पुरन्दरदेवं पितृव्यमव्याजमुच्छिद्य सद्यस्तां विजयोत्सवपरम्परावतीममरावतीं पुरमात्मपितरमखिलखचराचरितचरणसेवं भास्करदेवं निवेश्य वश्येन्द्रियः स्वयंवरव्याजेन विहिताभिलषितकान्तसंगामनङ्गसंगसंगतङ्गारसुभगां पवनवेगामपराश्चाम्बरचरपतिंवरा विवाह्य महाभागगृह्यो विहायश्चरचित्तचिन्तामात्रायासैस्तैस्तैर्विलासैः कालमतिवाहयामास । अन्यदा पुनरिष्टदुष्टशातिप्रभावक्षाभ्यामात्मनः पैरैधितत्वमवबुध्य निजान्वयनिश्चये सति शारीरेषुपैचारेषु प्रवृत्तिरन्यथा निवृत्तिरित्याचरितसंगरस्ताभ्यां महामुनिमाहात्म्यमन्त्रवित्रासितदुरितनिशौचरायां मथुरायां तपस्यतः सोमदत्तस्य भगवतः सनीडे नीतस्तदङ्गमुद्राप्रायमात्मकायमसाय संजातानन्दनिकायस्तावुभावप्युपनेतारौ मातापितरौ सादरमुक्तियुक्तिभ्यां प्रतिबोध्यावधीरितोभयग्रन्थो निर्ग्रन्थश्चारणर्द्धिवृद्धिः समपादि । भवति चात्रा तृणकल्पः -- बचपन के कारण वज्रकुमार के शरीर की कान्ति अशोक वृक्षके नये पत्तों की तरह या धतूरे के अथवा लालमणि की गेंद की तरह प्रतीत होती थी। घर के आदमी उसे बड़े प्यारसे पुष्प गुच्छ की तरह देखते थे और वह हाथों हाथ घूमता था। पहले वह ऊपर को मुख किये लेटा रहता था, कुछ बड़ा होने पर उसने मुसकराना शुरू किया ।फिर घुटनों के बल चलने लगा। फिर तुतुलाते हुए बोलना शुरू किया। फिर स्पष्ट बोलने लगा। इस तरह क्रम सै पाँच अवस्थाओं को बिताकर वह बड़ा हुआ। और जैसे मरु भूमि का मार्ग छाया देने वाले वृक्ष से शोभित होता है, छाया वृक्ष सरोवर से शोभित होता है, सरोवर कमलों से शोभित होता है, कमल समूह राजहंसों से शोभित होता है, राजहंसों का समूह स्त्रीके समागम से शोभित होता है और स्त्री समागम काम विलास से शोभित होता है वैसे ही वज्रकुमारका शरीर यौवन से सुशोभित हो गया। उसके बाद यौवन के भर उठने पर पितृवंश और मातृवंश से प्राप्त हुई निर्दोष विद्याओं के प्राप्त होने से उसका प्रताप और भी बढ़ गया और उसने अपने मामा की लड़की इन्दुमती से विवाह किया। एक बार वज्रकुमार अनेक विद्याधर कुमारों के साथ विजयार्ध पर्वत की शोभा देखता हुआ घूम रहा था। घूमते-घूमते वह हिमवान पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ विद्याधरों के स्वामी गरुड वेग की अतिशय रूपवती कन्या पवनवेगा बहुरूपिणी विद्या साधती थी। वज्रकुमार ने देखा कि विघ्न डालने की भावना से वह विद्या अजगर का रूप बनाकर उस कन्या को निगला ही चाहती है। उस परोपकारी ने तुरन्त ही गरुड़ विद्या के द्वारा उस के मुख को चीर दिया। इस विघ्न के दूर होते ही पवनवेगा को विद्या सिद्ध हो गई। उसने संकल्प किया कि इस जन्ममें मेरे प्राणोंकी रक्षा करने वाला यही युवक मेरा स्वामी है। यह संकल्प करके उसने वज्रकुमार को इष्ट वस्तु की सिद्धि करने वाली प्रज्ञप्ति नाम की विद्या प्रदान की और कहा कि इसी पहाड़के किनारे से बहने वाली नदी के पास आतापनयोग से स्थित, मुनि महाराजके चरणों के समीपमें बैठकर पढ़ने मात्र से तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो जायेगी। यह कह कर वह अपने नगरको लौट गई ।वज्र कुमार ने उसके कहे अनुसार फेनमालिनी नदी के किनारे आचार्य के समक्ष विद्या सिद्ध की ।इस विद्या के प्रभाव से उसमें असाध्य काम को भी साधने की शक्ति आ गई और इससे उसका पराक्रम और भी बढ़ गया। तब उसने अपने चाचा पुरन्दरदेव को मारकर अमरावती नगरी के राज्यासन पर अपने पिता भास्करदेव को बैठाया और स्वयंवर में पवनवेगा के साथ अन्य विद्याधर कुमारियों से विवाह करके आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगा। एक बार इष्ट बन्धु-बान्धवों के कहने से और दुष्ट जनों के अनादरसे उसे पता चला कि मैं भास्कर देव का पुत्र नहीं हूँ, बल्कि उन्होंने मेरा पालन किया है, तो उसने प्रतिज्ञा की कि अपने वंश का निश्चय हो जाने पर ही मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगा अन्यथा मेरे सबका त्याग है ।तब उसके पालक माता-पिता उसे मथुरा नगरी में तपस्या करते हुए सोमदत्त मुनि के पास ले गये। मुनि की शारीरिक आकृति के तुल्य ही अपनी आकृति को देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। और उसने उन दोनों माता-पिताको समझा-बुझाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग कर दिया और निम्रन्थ साधु बनकर चारणऋद्धिका स्वामी हो गया। श्रीकल्पः कान्तालोकश्चितो चितालोकः ।
किसी ने ठीक कहा है कि 'जो मनुष्य काम-विकार से दूर है उसके लिए लक्ष्मी तृण के समान है, एकत्र हुआ स्त्री-समुदाय चिता के आलोक समान हैं और कुटुम्बीजन राक्षसों के समान हैं ॥208 ॥पुण्यर्जनश्च स्वजनः कामविदूरे नरे भवति ॥208॥ इत्युपासकाध्ययने वज्रकुमारस्य तपोग्रहणो नाम षोडशः कल्पः । इस प्रकार उपासकाध्ययन में वज्रकुमार के तप ग्रहण करने का वर्णन करने वाला सोलहवाँ कल्प समाप्त हुआ । |