+ बुद्धदासी द्वारा पूतिकवाहन का वरण -
सत्रहवाँ कल्प

  ग्रन्थ 

ग्रन्थ :

पुनर्महामहोत्सवोत्साहितातोद्यवादनादमेदुरप्रासादकन्दरायामेतस्यामेव मथुरायां किल गोचराय चारणऋद्धियुगलं नगरमार्गे संगतगतिसर्ग सत् तत्र दित्रिरिवत्सर एवावस्थावसरे बालिकामेकां चिल्लचिकिन लोचनसनाथामनाथामापणाङ्गणचारिणों स्खलदमनविहारिणी निरीक्ष्य प्रतीक्ष्य पश्चाश्चरः सुनन्दनाभिधानगोचरो भगवानेवमवादोत्-'अहो, दुरालोकः खलु प्राणिनां कर्मविपाकः, यदस्यामेव दशायां क्लेशाय प्रभवति' इति । पुरश्चारीभगवानभिनन्दननामधारी-'तपःकल्पद्रुमोत्पादनन्दन सुनन्दनमुने, मैवं वादीः। यद्यपीयं गर्भसंभूता सती राजभेष्ठिपदप्रवृत्तं समुद्रदत्तं पितरं जातमात्रा तद्वियोगदुःखोपसदां धनदां मातरं प्रवर्धमाना च बन्धुजनमकाण्ड एव दर्शमी दशामानीय इदमवस्थान्तरमनुभवन्ती तिष्ठति, तथाप्यनया प्रौढयौवनयास्य मथुरानाथस्यौर्विलादेवीविनोदावसथस्य पूतिकवाहनस्य महीनस्याप्रमहिण्या भवितव्यम्' इत्यवोचत् । पतञ्च तत्रैव प्रस्तावे पिण्डपाताय हिण्डमानः शाक्यभिक्षुरुपश्रुत्यै 'नान्यथा मुनिभाषितम्' इति निर्विकल्पं संकल्प्य, स्वीकृत्य चैनामर्मिकामाहितविहारवसतिकामभिलषितार्नुहारैराहारैरवीवृधत् । जुहाव च बुद्धदासीति परिजनपरिहासतन्त्रेण गोत्रण। . ततो गतेषु केषुचिद्वर्षेषु भ्रमरकभङ्गाभिनयनभरते ध्रुविभ्रमारम्भोपाध्यायस्थानिनि लोचनविचारचातुर्याचार्ये चतुरोक्तिचातुरीप्रचारगुरुणि बिम्बाधरविकारसौन्दर्यकादम्बरीयोगे निम्नोन्नतप्रदेशप्रकाशनशिल्पिनि मनसिजगजमदोद्दीपनपिण्डिपण्डित शृङ्गारगर्भगतिरहस्योपदेशिनि समस्तभुवनमनोमोहनसिद्धौषधे प्रतिदिनप्रादुर्भावसविधे सति यौवने सा रूपसंपन्महीयसी बुद्धदासी सोत्तालमुत्तुङ्गतमङ्गटङ्गोत्सङ्गसंगता तं भ्रमणिकया कृतविहारोपान्तागमनं पूतिकवाहनं राजानमदर्शत् । राजा च ताम् । राजा --
एक बार मथुरा नगरी में चारणऋद्धि के धारी दो मुनि मार्ग में चले जाते थे। उसी मार्ग में दो-तीन वर्ष की एक अनाथ बालिका जिसकी आँखें मैल से भरी थीं, इधर-उधर भटकती माँगती खाती डोलती थी। उसे देखकर पीछे चलने वाले सुनन्दन नाम के मुनि बोले-'जीवों के कर्म का विपाक कोई नहीं जानता, देखो तो बेचारी यह बालिका इतनी-सी उम्र में ही कष्ट भोगती है।'

यह सुनकर आगे चलने वाले अभिनन्दन मुनि बोले-'सुनन्दन मुनि ! ऐसा मत कहो, यद्यपि जब यह बालिका गर्भ में आई तो राजश्रेष्ठी के पद पर प्रतिष्ठित इसका पिता समुद्रदत्त मर गया, जब यह जन्मी. तो पति के वियोग में इसकी माता धनदा चल बसी, बड़ी हुई तो असमय में ही बन्धुबान्धव मर गये और अब यह इस हालतमें है। तथापि युवती होने पर यह इसी मथुरा नगरी के राजा पूतिकवाहनकी पटरानी होगी।' वहीं पर भोजनके लिए घूमते हुए बौद्ध भिक्षु ने इस बातचीतको सुना । उसने सोचा कि मुनि झूठ नहीं बोलते। अतः वह उस बालिका को अपने विहार में ले गया और उसको रुचि के अनुसार खान-पान देकर उसे बड़ा किया। सब लोग हँसी में उसे बुद्धदासी कहते थे। धीरे-धीरे उसमें यौवनका प्रादुर्भाव हो चला । उसकी भृकुटियों में विलास आ चला, लोचनोंमें कुछ अजीब चंचलता दृष्टिगोचर होने लगी, उसकी बातों में भी चातुर्य झलकने लगा, ओष्ठों पर अपूर्व मादकता छा गई, अंग-प्रत्यङ्ग में यौवनकी शिल्पकला का चातुर्य दिखाई पड़ने लगा, चालमें मादकता आगई। कुछ वर्ष बीतनेपर एक दिन वह रूपवती बुद्धदासी विहार के एक ऊँचे शिखर पर चढ़ी हुई थी। घूमते-घूमते राजा पूतिकवाहन उस विहार के करीब आ गया ।दोनोंने एक दूसरेको देखा। . देखते ही राजा काम मोहित हो गया और विचारने लगा-'इस स्त्री रूपी नदी में प्रायः मेरी मति इस प्रकार की हो रही है --



अलकवलयावर्तभ्रान्ता विलोचनवीचिका
प्रसरविधुरा मन्दोद्योगा स्तनद्वयसैकते ।
त्रिवलिवलनश्रान्ता नाभौ पुनश्च निमजना-
दिह हि सरिति प्रायेणैवं मतिर्मम वर्तते ॥209॥
प्रथम तो वह उसके कुटिल केश पाश के गोलाकार जूड़ेरूपी भँवर में पड़कर भ्रान्त हो गई, फिर नेत्ररूपी लहरों के तूफान में पड़कर पीड़ित हुई, उसके बाद दोनों स्तन रूपी बालुका मय किनारों पर पहुँचकर उसकी दौड़धूप शिथिल पड़ गई, पुनः उदर की तीन रेखाओं में भ्रमण करने से थक गई और पुनः नाभि में डूब जाने से क्लान्त हो गई ॥209॥

इति विचिन्त्य, चेतोभूविजम्भप्रारम्भंनिवार्यावधार्य च, किमियं विहितविवाहोपचारा, किं वाद्यापि पतिवेरा' इति भिनापृच्छय तत्र 'द्वितीयपक्षे सर्वथास्मत्पने कर्तव्या' इति समर्पिताभिलाषमातपुरुषं प्रेष्य रणरणकजडान्तःकरणः शरणमगात् । आप्तपुरुषोऽप्यप्रमहिषीपदपणेबन्धेन साध्यसिद्धि विधाय स्वामिनं तत्समागमिनमकरोत् । भवति चात्रार्या --


फिर उसने अपने चित्तमें उठते हुए बवण्डरको जिस किसी तरह रोककर आगे का मार्ग निर्धारित किया। एक विश्वस्त पुरुष को बुलाकर उससे अपने मन की अभिलाषा बतलाकर वह बोला-'तुम भिक्षु के पास जाकर यह पूछो कि यह कन्या विवाहित है या अविवाहित ? यदि अविवाहित हो तो उसे हमारे लिए तैयार करो।' उस विश्वस्त पुरुषने राजमहिषी का पद प्रदान करने की प्रतिज्ञा करके उसका राजा के साथ विवाह करा दिया।

किसी ने ठीक कहा है --

पुण्यं वा पापं वा यत्काले जन्तुना पुराचरितम् ।
तत्तत्समये तस्य हि सुखं च दुःखं च योजयति ॥210॥
'जीव ने पूर्वजन्म में जो पुण्य या पाप किया है, समय आने पर वह उसे अवश्य सुख या दुःख देता है' ॥210॥

इत्युपासकाध्ययने बुद्धदास्याः पूतिकवाहनवरणो नाम सप्तदशः कल्पः।


इस प्रकार उपासकाध्ययन में बुद्धदासी द्वारा पूतिकवाहन के वरण का वर्णन करने वाला सत्रहवाँ कल्प समाप्त हुआ ।