ग्रन्थ : (अब ब्रह्मचर्याणुव्रत का वर्णन करते हैं-) वधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तजने ।
अपनी विवाहिता स्त्री और वेश्या के सिवा अन्य सब स्त्रियोंको अपनी माता बहिन और पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥405॥माता स्वसा तनूजेति मतिर्भ गृहाश्रमे ॥405॥ (विशेषार्थ – सब श्रावकाचारों में विवाहिता के सिवा स्त्री मात्र के त्यागी को ब्रह्मचर्याणुव्रती बतलाया है। परनारी और वेश्या ये दोनों ही त्याज्य हैं। किन्तु पं० सोमदेवजी ने अणुव्रती के लिए वेश्या की भी छूट दे दी है। न जाने यह छूट किस आधारसे दी गई है ? ) धर्मभूमौ स्वभावेन मनुष्यो नियंतस्मरः।
धर्मभूमि आर्यखण्ड में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं। अतः अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही सम्बन्ध करना चाहिए और अन्य कुजातियों की तथा बन्धु-बान्धवों की स्त्रियों से और व्रती स्त्रियों से सम्बन्ध नहीं करना चाहिए ॥406॥ यजात्यैव पैराजातिबन्धुलिङ्गिस्त्रियस्त्यजेत् ॥406॥ रक्ष्यमाणे हि बृंहन्ति यत्राहिंसादयो गुणाः ।
जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणों में वृद्धि होती है उसे ब्रह्मविद्या में निष्णात विद्वान् ब्रह्म कहते हैं॥407॥उदाहरन्ति तद्ब्रह्म ब्रह्मविद्याविशारदाः ॥407॥ मदनोद्दीपनवृत्तैर्मदनोहीपनै रसैः।
अतः कामोद्दीपन करने वाले कार्यों से, कामोद्दीपन करनेवाले रसों के सेवनसे और कामोद्दीपन करने वाले शास्त्रों के श्रवण या पठन से अपने में काम का मद नहीं लाना चाहिए ॥408॥मदनोद्दीपन शामंदमात्मनि नाचरेत् ॥408॥ हव्यैरिव दुतप्रीतिः पाथोभिरिव नीरधिः।
जैसे हवन की सामग्री से अग्नि और जल से समुद्र कभी तृप्त नहीं होते। वैसे ही यह पुरुष सांसारिक भोगों से कभी तृप्त नहीं होता ॥409॥ तोषमेति पुमानेष न भोगैर्भवसंभवैः ॥409॥ विषवद्विर्षयाः पुंसामापाते मधुरागमाः।
ये विषय विषके तुल्य हैं। जब आते हैं तो प्रिय लगते हैं किन्तु अन्त में विपत्ति को ही लाते हैं। अतः सज्जन का विषयों में आग्रह कैसे हो सकता है ॥410॥अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः ॥410॥ बहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वन्नरः संकल्पजन्मवान् ।
तरह-तरह की बाह्य क्रियाओं को करता हुआ कामी मनुष्य रति सुख के मिलने पर ही सुखी होता है। किन्तु इसमें क्लेश ही अधिक होता है सुख तो नाम मात्र है ॥411॥भावाप्तावेव निर्वाति क्लेशस्तत्राधिकः परम् ॥411॥ निकामं कामकामात्मा तृतीयाँ प्रकृतिर्भवेत ।
जो अत्यन्त कामासक्त होता है वह निरन्तर का मका सेवन करने से नपुंसक हो जाता है और जो निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह अनन्त वीर्य का धारी होता है ॥412॥अनन्तवीर्यपर्यायस्तानारतसेवने ॥412॥ सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फलाय हितकामिनाम् ।
जो अपना हित चाहते हैं उनकी सभ अनुलोम क्रियाएँ फलदायक होती हैं। किन्तु अर्थ और काम को छोड़कर । क्योंकि जो अर्थ और काम की अभिलाषा करते हैं उन्हें अर्थ और काम की प्राप्ति नहीं होती, अतः उन्हें अर्थ और काम की प्राप्ति होने पर भी सदा असन्तोष ही रहता है ॥413॥अपरत्रार्थकामाभ्यां यत्तौ न स्तां तदर्थिषु ॥413॥ तयामय समः कामः सर्वदोषोदयद्युतिः।
काम क्षय रोग के समान सब दोषों को उत्पन्न करता है। उसका आधिक्य होने पर मनुष्यों का कल्याण कैसे हो सकता है ? ॥414॥उत्सूत्रे तत्र मानां कुतः श्रेयः समागमः ॥414॥ देहद्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः।
जिसने काम को जीत लिया उसका देह का संस्कार करना, धन कमाना आदि सभी व्यापार व्यर्थ हैं; क्योंकि काम ही इन सब दोषों की जड़ है ॥415॥जितकामे पृथा सर्वास्तत्कामः सर्वदोषभाक् ॥415॥ स्वाध्यायंध्यानधर्माद्याः क्रियास्तावन्नरे कुतः।
जब तक चित्त रूपी इंधन में यह कामरूपी आग धधकती है तब तक मनुष्य स्वाध्याय, ध्यान, धर्माचरण आदि क्रिया कैसे कर सकता है ? ॥416॥ई? चित्तेन्धने यावदेष कामांशुशुक्षणिः ॥416॥ ऐदम्पंयमतो मुक्त्वा भोगानाहारवद्रजेत् ।
अतः कामुकता को छोड़कर शारीरिक सन्ताप की शान्ति के लिए और विषयों की चाह को कम करनेके लिए आहार की तरह भोगों का सेवन करना चाहिए ॥417॥देहदाहोपशान्त्यर्थमभिध्यानविहानये ॥417॥ परस्त्रीसंगमानक्रीडान्योपर्येमक्रियाः।
परायी स्त्री के साथ संगम करना, काम सेवनके अंगों से भिन्न अंगों में कामक्रीड़ा करना, दूसरों के लड़की-लड़कों का विवाह कराना, कामभोग की तीव्र लालसा का होना और विटत्व, ये बातें ब्रह्मचर्य व्रत को घातनेवाली हैं ॥418॥ती तारतिकर्तव्ये हन्युरेतानि तद् व्रतम् ॥418॥ मचं द्यूतमुपद्रव्यं तौर्यत्रिकमलंक्रियाः ।
शराब, जुआ, मांस मधु, नाच, गाना और वादन, लिंग पर लेप वगैरह लगाना, शरीर को सजाना, मस्ती, लुच्चापन और व्यर्थ भ्रमण, ये दस काम के अनुचर हैं ॥419॥मदो विटा वृथाटयति दशधानगजो गणः ॥419॥ हिंसनं साहसं द्रोहः पौरो भाग्यार्थदूषणे ।
हिंसा, साहस, मित्रादिके साथ द्रोह, दूसरों के दोष देखने का स्वभाव, अर्थदोष अर्थात् न ग्रहण करने योग्य धन का ग्रहण करना, और देयधन को न देना, ईर्ष्या, कठोर वचन बोलना और कठोर दण्ड देना ये आठ क्रोध के अनुचर हैं ॥420॥ईर्ष्या वाग्दण्डपारुष्ये कोपजः स्यारणोऽष्टया ॥420॥ ऐश्वयौदार्यशौण्डीर्यधैर्यसौन्दर्यवीर्यताः।
ब्रह्मचर्याणुव्रती अद्भुत ऐश्वर्य, अद्भुत उदारता, अद्भुत शूर-वीरता, अद्भुत धीरता, अद्भुत सौन्दर्य और अद्भुत शक्ति को प्राप्त करता है ॥421॥लभेताद्भुतसञ्चाराश्चतुर्थव्रतपूतधीः ॥421॥ अनङ्गानलसंलोढे परस्त्रीरतिचेतसि।
जिसका कामरूपी अग्नि से वेष्टित चित्त पर-नारी से रति करने में आसक्त है उसे इसी जन्म में तत्काल विपत्तियाँ उठानी पड़ती हैं और परलोक में भी कठोर विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है ॥422॥सद्यस्का विपदो पत्र परत्र च दुरास्पदाः ॥422॥ श्रूयतामत्राब्रह्मफलस्योपाख्यानम्-काशिदेशेषु सुरसुन्दरीसपत्नपौरागनाजनविनोदारविन्दसरस्यां वाणारस्यां संपादितसमस्तारातिसंतानप्रकर्षकर्षणो धर्षणो नाम नृपतिः । अस्यातिचिरप्ररूढप्रणयसहकारमअरी सुमारी नामाप्रमहादेवी । पञ्चतन्त्रादिशास्त्रविस्तृतवचन उग्रसेनो नाम सचिवः । पतिहितैकमनोमुद्रा सुभद्रा नामास्य पत्नी। दुर्विलासरसरङ्गः कडारपिङ्गो नामानयोः सूनुः । अनवद्यविद्योपदेशप्रकाशिताशेषशिष्यः पुष्यो नाम पुरोहितः । सौरूप्यातिशयापहसितपंमा पमा नामास्य धर्मपत्नी। समस्ताभिजातजनवायव्यवहारानुगः स कडारपिङ्गः स्वापतेयतारुण्यमदमन्दमानबलाचापलाद्दुरालपनभण्डेन षिड्गेषण्डेन सह नतभ्रूविभ्रमाभ्यर्थ्यमानभुजङ्गातिथिषु वीथिषु संचरमाणस्तामेकदा प्रासादतलोपसंदामरोलपक्ष्मेक्षणाक्षिप्तपमा पभामवलोक्य । (दुराचार के फल के सम्बन्ध में एक कथा सुनें) दुराचारी कडारपिंग की कथा काशी देश में वाराणसी नाम की नगरी है। उसमें धर्षण नाम का राजा राज्य करता था। सुमञ्जरी नाम की उसकी पटरानी थी, और उग्रसेन नामका मन्त्री था। मन्त्री की पत्नी का नाम सुभद्रा था, और पुत्र का नाम कडारपिंग था। वह बड़ा विलासी था। राजपुरोहितका नाम पुष्य था और उसकी पत्नी का नाम पद्मा था। मन्त्रीपुत्र कडारपिंग कुलीन पुरुषों के न करने योग्य काम करता था। एक दिन वह धन और जवानी के मदसे मस्त होकर अश्लील बात-चीत करते हुए कामीजनों के साथ उन गलियों में घूमता था, जहाँ स्त्रियोंके विलास से आमन्त्रित होकर विलासी जन आतिथ्य ग्रहण करते हैं। उसने महल के ऊपर अपने सुन्दर नयनों से कमल को तिरस्कृत करनेवाली पद्मा को देखा । वह सोचने लगा -- एषेन्द्रियगुमसमुल्लसनाम्बुवृष्टिः-
इन्द्रियरूपी वृक्ष की वृद्धि के लिए जलवृष्टि, मनरूपी मृग के विनोद के लिए क्रीडाभूमि और कामरूपी हाथी को बाँधने के लिए सांकलके समान यह कौन है ? कोई विद्याधरी है या देवागना है अथवा रति है ? रेषा मनोमृगविनोदविहारभूमिः । एषा स्मरद्विरदबन्धनवारिवृत्तिः किं खेचरी किममरी किमियंरतिर्वा ॥423॥ इति च विचिन्त्य मकरकेतुवशव्यापारनिधिः प्रवृत्तदुरभिसन्धिः पुरुषप्रयोगेणाभिमेतसिद्धिमनवबुध्यमानः पराशयशैलविदारणतडिल्लतामिव तडिल्लतां नाम धात्री अष.क्षीणे शरणे सुनयायंतनपतनादिभिः पादपतनादिभिः "प्रश्रयैरसदाशयाश्रयैरवन्ध्यसाध्यमुपरुध्य स्वकीयाकूतकान्तारप्रवर्धनधरित्रोम करोत् । । तदुपारोधातथाविधविधिविधात्री धात्रो-(स्वगतम् ) 'परपरि ग्रहोऽन्यतरानुरागग्रहश्चेति दुर्घटप्रतिभासः खलु कार्योपन्यासः। अथवा सुघट एवायं कार्यघटः । यतस्तप्तातप्तवयसोरयसोरिव चेतसोः साङ्गत्याय खलु पण्डितैर्दीत्यं"दौत्यमन्यथा सरसतरसोरम्भसोरिव द्वयोरपि द्रवस्वभावयोरेकीकरणे किं नु नाम प्रतिभाविजृम्भितम् । किं च । ऐसा विचारते हुए उसने काम से पीड़ित होकर दुष्ट संकल्प किया। बलात्कार के द्वारा अपने मनोरथ की सिद्धि न होती जानकर उसने दूसरे के अभिप्राय रूपी पर्वत को भेदने में बिजली की तरह कुशल तडिल्लता नाम की धाय को उसके पास भेजने का विचार किया। और एकान्त गृहमें नीतिवानों को भी मार्ग भ्रष्ट करने वाले पैरों पर गिरना आदि दुर्जनों के द्वारा आश्रय की जाने वाली विनय के द्वारा उसे अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए तैयार किया। उसके अति आग्रह से उस कार्य का भार लेकर धाय सोचने लगी--पर-नारी और किसी दूसरे के प्रेम को जुटाने का कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है । अथवा यह कार्य सरल ही है; क्योंकि तपे हुए और बिना तपे हुए लोहों के समान दो चित्तों को मिलाने के लिए पंडित जन जो कुछ प्रयत्न करते हैं वही तो वास्तव में दौत्य है ।अन्यथा वेग से बहने वाले दो जलों की तरह दो तरल हृदयों को मिलाने में क्या बुद्धिमानी है ?' तथा। सा दूतिकाभिमतकार्यविधौ बुधानां
वही दूती इष्ट कार्य को करने में चतुर कहलाती है, जो चुम्बक पत्थर की तरह दूसरे के मन के भीतर के शल्य को बाहर निकाल लेती है ॥424॥चातुर्यवर्यवचनोचितचित्तवृत्तिः । याचुम्बकोपलकलेवहि शल्यमन्त- श्चेतोनिरूढमपरस्य बहिष्करोति ॥424॥ तदलं विलम्बेन । परिपक्वफलमिव न खलु व्यतिक्रान्तकालमदः" सर सताधिष्ठान मनुष्ठानम् । किं त्वस्य साहसावलम्बनधर्मणः कर्मणः सिद्धावसिद्धौ वा देवात्परेगिताकारसर्वः प्राः कथमपि बहुजनावकाशे कृते सति पुरश्चारी हि शरीरी भवति दुरपवाद परागावसरो व्यसनगोचरश्च । तद् ध्वनेयेयमिदमवसेयमद्वितीयाफ्त्यप्रसवाय सचिपाय। तदुदाहरन्ति न चानिषेध भर्तुः किञ्चिदारम्भं कुर्यादन्यत्रात्प्रतीकारेभ्य' इति । (प्रकाशम् ) 'प्राणप्रियैकापत्य अमात्य, ईदृश इव ननु भवादशोऽपि जनो जातजीवितामृतानिषेकाय अचिरत्नं यत्तं कर्तुमर्हति । अमात्यः-'समस्तमनोरथसमर्थनकथास्मायें भार्ये, तज्जीवितामृतनिषेकाय मज्जीवितोचितविवेकाय च तत्रभवत्येव प्रभवति।' धात्री-'अथ किम् । तथाप्यबलाजनमनोतिरिक्तप्रतिभावता तत्रभवतापि प्रतियतितव्यम् । ' इत्यभिधाय धृतकात्यायिनीप्रतिकर्मा करतलामलकमिवाकलितसकलस्त्रैणधर्मा तैस्तैः परचित्ताकर्षणमन्त्रैर्व त्रैश्चक्षुश्चेतोहादेवास्तुभिश्च अतिचिरायाचरितोपचारा परिप्राप्तप्रणयप्रसरावतारा च एकदा मुदा रहसीमं प्रस्तुतकार्यघटनासमसीमं तां पुष्यकान्तामुद्दिश्य श्लोकमुदाहार्षीत् । अतः इस कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। जैसे समय बीत जाने पर पका फल भी सरस नहीं रहता वैसे ही समय बीत जाने पर सुकर काम भी दुष्कर हो जाता है। किन्तु यह कार्य बड़े साहस का है भाग्यवश यह सिद्ध हो या न हो किन्तु दूसरे के अभिप्राय को जानने में सर्वज्ञ विद्वान् भी यदि ऐसे कार्यको बहुत से मनुष्यों के सामने करें तो दूत निन्दा का पात्र तो बनता ही है, साथ ही साथ मुसीबत में भी पड़ जाता है। इसलिए यह कार्य केवल एक ही पुत्र वाले मंत्री से कह देना चाहिए, कहा भी है कि स्वामी से निवेदन किये बिना दूत को कोई भी काम नहीं करना चाहिए। हाँ, यदि कोई आपत्ति आ जाये तो उसका प्रतीकार स्वामी से विना कहे भी किया जा सकता है।' ऐसा मनमें सोचकर धाय मन्त्री से बोली-- मंत्री जी! आपका यह प्राणप्रिय इकलौता लड़का है। आप भी पहले ऐसे ही थे। इसलिए पुत्र के जीवन को बचाने के लिए आपको शीघ्र प्रयत्न करना चाहिए।' मंत्री - आर्ये ! मेरे और मेरे पुत्रके जीवनको बचाना आपके ही हाथ है। धाय - सो तो है ही, किन्तु फिर भी आपकी प्रतिभा हम स्त्रियों की बुद्धि से बहुत अधिक है। इसलिए आपको भी प्रयत्न करना चाहिए। इतना कहकर धायने ढलती उम्र की स्त्री का वेश धारण किया। वह स्त्रीजनोचित सब बातों में बड़ी चतुर थी। उसने दूसरे के चित्त को आकृष्ट करने वाले वचनों से और आँखों तथा मन को प्रसन्न करने वाली वस्तुओं से कुछ दिनों में ही पद्मा को खुश कर लिया। एक दिन प्रेम का जाल फैलाने का अवसर आया देखकर धाय ने बड़े हर्ष के साथ एकान्त में पद्मा को लक्ष्य करके एक श्लोक कहा उसका भाव यह था - स्त्रीषु धन्यात्र गङ्गव परभोगोपगापि या ।
इस लोक की स्त्रियों में गङ्गा नदी ही धन्य है, जिसे सब भोगते हैं, फिर भी महादेव बड़े हर्ष से मणियों की माला की तरह उसे अपने मस्तक पर धारण करते हैं ॥425॥मणिमालेव सोल्लासं ध्रियते मूनि शम्भुना ॥425॥ भट्टिनी-(स्वगतम्) इत्वरीजनाचरणहर्म्यनिर्माणाय प्रथमसूत्रपात इवायं वाक्यो इसे सुनकर पद्माने अपने मनमें विचारा- 'इसकी यह भूमिका तो दुराचारिणी स्त्रियों के 'पोशातः । तथा चाह येयं तावदेतदाकूतपरिपाकम् । (प्रकाशम् । ) आर्ये, किमस्य सुभाषितस्य ऐदम्पर्यम् । धात्री-परमसौभाग्यभागिनि भट्टिनि, जानासि एवास्य सुभाषितस्य "कैम्पर्यम् , यदि न वज्रघटितहृदयासि। . भटिनी-(स्वगतम् ) सत्यं वज्रघटितहृदयाहम् , यदि भवत्प्रयुक्तोपघातघण: जर्जरितकाया न भविष्यामि । (प्रकाशम् ) आर्ये, हृदयेऽभिनिविष्टमर्थ श्रोतुमिच्छामि । धात्री-वत्से, कथयामि । किं तु । योग्य दुराचार का महल बनाने के लिए पहली नापा-जोखी जैसी है। फिर भी जो कुछ इसने कहा है उसके अभिप्राय को परिपक्व करने का प्रयत्न करना चाहिए।' यह सोच धायसे बोली-'माता आपके इस सुभाषित का क्या मतलब है ?' धाय--परम सौभाग्यवती देवी यदि तुम्हारा हृदय वज्र का नहीं है तो इस सुभाषित का मतलब तुम जानती ही हो। पद्मा--(मनमें ) यदि तुम्हारे द्वारा फेंके गये इस लोह मुद्गर से मेरा मन चूर्ण नहीं. होता तो जरूर मेरा हृदय वज्र से बना है। (प्रकाशमें ) माता ! हृदय में वर्तमान अर्थ को मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ। धाय---पुत्री ? बतलाती हूँ । किन्तु - चित्तं द्वयोः पुरत एव निवेदनीयं ।
समझदार और स्वाभिमानी मनुष्य को दो के ही सामने अपने मनकी बात कहनी चाहिए। एक तो उससे, जो प्रार्थना करने पर प्रार्थना को अस्वीकार न करे । दूसरे उससे, जो अपने मनके अनुकूल हो ॥426॥ मानाभिमानधनधन्यधिया नरेण । यः प्रार्थितं न रहयत्यभियुज्यमानों यो वा भवेन्ननु जनो मनसोऽनुकूलः ॥426॥ भट्टिनी-(स्वगतम् ) अहो नभः प्रकृतिमपीयं पङ्करुपलेप्तुमिच्छति। (प्रकाशम् ) आयें, ''उभयत्रापि समर्थाहं न चैतन्मदुपझं भवदुपक्रम था। धात्री-(स्वगतम्) 'अनुगुणेयं खलु कार्यपरिणतिः, यदि निकटतटतन्त्रस्य वहिपात्रस्येव 'दुर्वातालीसन्निपातो न भवेत् । (प्रकाशम् ) अत एव भद्रे, वदन्ति पुराणविद: - पद्मा - (मन में) देखो इसकी धृष्टता, आकाश की तरह निर्लिप्त वस्तु को भी यह कीचड़ से लोपना चाहती है। (प्रकाशमें ) माता ! मैं उक्त दोनों बातों में समर्थ हूँ। न मेरे लिए यह कोई नयी बात है और न इसमें तुम्हारा ही कुछ प्रयत्न है। धाय - (मन में) यदि कोई तूफ़ान न आ पहुँचे तो तटके निकट आये हुए जहाज की तरह यह कार्य सिद्ध है। (प्रकाशमें ) पुत्री ! इसीलिए पुराणकारों ने कहा है कि - विधुर्गुरोः कलत्रेण गोतमस्यामरेश्वरः।
प्राचीनकाल में चन्द्रमा ने अपनी गुरुपत्नी से, इन्द्र ने गौतम की पत्नी अहिल्या से और महादेव ने संतनु राजा की पत्नी से संगम किया था ॥427॥संतनोश्चापि दुश्चर्मा समगंस्त पुरा किल ॥427॥ भट्टिनी - आर्ये, एवमेव । यतः -- पद्मा - माता आपका कहना ठीक है; क्योंकि - स्त्रीणां वपुर्वन्धुभिरग्निसाक्षिकं परत्र विक्रीतमिदं न मानसम् ।
बन्धु-बान्धव अग्नि की साक्षी पूर्वक स्त्री का शरीर दूसरे को बेच देते हैं, मन नहीं। उसका पति तो वही भाग्यशाली होता है जिससे उसे विश्वास के साथ ही साथ सुरत भी मिलता है ॥428॥स एव तस्याधिपतिर्मतः कृती विनम्भगर्भा ननु यत्र निर्वृतिः ॥428॥ धात्री - पुत्रि, तर्हि श्रूयताम् । त्वं किलैकदा कस्यचित्कुसुम किंसारुनिर्विशेषवपुषः पुराङ्गनाजनलोचनोत्पलोत्सवामृतरोचिषः प्रासादपरिसरविहारिणी वीक्षणपथानुसारिणी सती कौमुदीव हृदयचन्द्रकान्तानन्दस्यन्दसंपादिनी अभः। तत्प्रभृति ननु तस्य मदनसुन्दरस्य यूनः प्रत्यवसितवसन्तश्रीसमागमसमयस्य "पुष्पन्धयस्येव रसालमार्यामिव भवत्यां महान्ति खलु मन्दमकरन्दास्वादन दोहदानि, नितान्तं चिन्ताचक्रपरिक्रान्तं स्वान्तम् , प्रसभं गुणस्मरणपरिणामाधिकरणमन्तःकरणम्, अनवरतं रामणीयकानुकीर्तनसंकेतं चेतः, प्रविकसत्कुसुमविलासोचितसंनिहितेऽप्यन्यस्मिल्लताकान्ताजने महानुढेगः, पिशाचच्छलितस्येवास्थानानुबन्धः, सातोन्मादस्येव विचित्रोपलम्भः क्रियाप्रारम्भः, स्कन्दगदगृहीतस्येव प्रतिवासरं कायावतारः, स्मराराधनप्रणीतप्रणिधानस्येवेन्द्रियेषु सन्नता जडता प्राणेषु "चाद्यश्वीनपथाकथा । अपि च धाय - पुत्री ! तो सुन एक दिन तू अपने महल के ऊपर घूमती थी। फूल की पंखुड़ीकी तरह कोमल और नगर की स्त्रियों के नयन कुमुदों को विकसित करनेके लिए चन्द्रमा के तुल्य किसी युवा की दृष्टि तेरे ऊपर पड़ गयी। जैसे वसन्त का समागम होने पर भौरा आम की मंजरी का रस पान करने के लिए लालायित रहता है वैसे ही उस दिन से कामदेव की तरह सुन्दर वह युवा तेरे रस का पान करने के मनोरथ बाँधता रहता है। उसी दिन से उसका चित्त तेरे लिए चिन्तित है, सदा तेरे गुणों को स्मरण करता है, तेरी सुन्दरता का बखान करता है, विलास के योग्य अन्य स्त्रियों के पास आने पर भी उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखता। भूताविष्ट की तरह एक स्थान पर नहीं बैठता । पागलों की तरह विचित्र काम करता है। क्षयरोग के रोगी की तरह दिन-दिन कृश होता जाता है ।इन्द्रियाँ ऐसी क्षीण हो गयी है मानो कामदेव की आराधना के लिए उसने ध्यान लगाया है ।आज-कल में ही उसके प्राण पखेरू उड़ना चाहते हैं। तथा - अनवरतजलान्दिोलनस्पन्दमन्दै
सदा जल से भीगे हुए पंखे से मन्द-मन्द हवा के किये जाने से और अत्यन्त सरस कमलों के डोंडों को चन्दन के रस में भिगोकर उनका लेप करने से चाँदनी रात में तेरे प्रेमी को कुछ होश होता है ॥429॥रतिसरसमृणालीकन्दलैश्चन्दनाः । अमृतरुचिमरीचिप्रौढितायां निशायां प्रियसनि सुहृदस्ते किञ्चिदात्मप्रबोधः ॥429॥ भट्टिनी - आर्ये, किमित्यद्यापि गोपाय्यते । धात्री-कर्णजाहमनुसृत्य ) एवमेवम् । भट्टिनी-को दोषः। धात्री-कदा। भट्टिनी-यदा तुभ्यं रोचते। इतश्चानन्तरायतया 'तनयानुमताहितमतिपाटवः सचिवोऽपि नृपतिनिवासो. चितप्रचारेषु 'वासुरेषु गुणव्यावर्णनावसरायातमेतस्य महीपतेः पुरस्ताच्छ्लोकमिममुपन्यास्थत पद्मा - माता! तो अब तक यह बात तुम क्यों छिपाये रहीं ? धाय - (कान में) । इस इस प्रकार । पद्मा - इसमें क्या बुराई है ? धाय - तो कब ? पद्मा - जब तुम चाहो। इधर धाय का प्रयत्न चालू था उधर मन्त्री भी प्रतिदिन अपने पुत्र की हित-कामना से राजाके पास जाता था और राजाके महल में रहने योग्य पक्षियों के गुणोंका वर्णन किया करता था ।एक दिन अवसर पाकर उसने राजा के सामने एक श्लोक पढ़ा। जिसका मतलब यह था कि - राज्यं प्रवर्धते तस्य किअल्पो यस्य वेश्मनि ।
जिस राजा के महल में किञ्जल्प नाम का पक्षी रहता है उसका राज्य बढ़ता है और सिद्ध किये गये चिन्तामणि रत्न की तरह उससे शत्रु नष्ट हो जाते हैं ॥430॥ शत्रवश्व क्षयं यान्ति सिद्धाचिन्तामणेरिव ॥430॥ राजा - अमात्य, क तस्य प्रादुर्भूतिः, कीरशी च तस्याकृतिः। अमात्यः-देव, भगवतः पार्वतीपतेः श्वशुरस्य मन्दाकिनीस्पन्दनिदानकन्दरनीहारस्य रमणसहवरखेचरीसुरतपरिमलमत्तमत्तालिमण्डलीविलिख्यमानमरकतमणिमेखलस्य प्रालेयाचलस्य वृक्षोत्पलषण्डमण्डितशिखण्डस्य रत्नशिखण्डनाम्नः शिखरस्याभ्यासे नि:शेषशकुन्तसंभवावहा गुहा समस्ति । यस्यां जटायु-वैनतेय-वैशम्पायनप्रभृतयः शकुन्तयः प्रादुरासन् । तस्यामेव तस्योत्पत्तिः । तां च गुहामहं पुष्यश्चानेकशो नन्दाभगवतीयात्रानुसारित्वात्साधु जानोवः । प्रतिकृतिश्चास्यानेकवर्णा मनुष्यसवर्णा च । भूपालः-(सजातकुतूहलः ) अमात्य, कथं तदर्शनोत्कण्ठा ममाकुण्ठा स्यात् । अमात्यः-देव, मयि पुष्ये वा गते सति । राजा-अमात्य, भवानतीव प्रवयाः । तत्पुष्यः प्रयातु । अमात्यः-देव, तर्हि दीयतामस्मै सरत्नालङ्कारप्रवेक पारितोषिकम् , "अग. णेयं पाथेयं च। राजा-बाढम् । स्वामिचिन्ताचारचक्षुष्यः पुष्यस्तथादिष्टों गेहमागत्य 'आदेशं न विकल्पयेत्' इति मतानुसारी प्रयाणसामनी कुर्वाणस्तया सतीव्रतपवित्रितसमया पाया पृष्टः - भट्ट, किमकाण्डे प्रयाणाडम्बरः। पुष्यः - प्रस्तुतमाचष्टे। भट्टिनी - भट्ट, सर्वमेतत्सचिषस्य कूटकपटचेष्टितम् । भट्टः - भट्टिनि, किं नु खल्वेतच्चेष्टितस्यायतनम् । भट्टिनी - प्रक्रान्तमभाषिष्ट। भट्टः - किमत्र कार्यम् । भट्टिनी - कार्यमेतदेव । दिवा सप्रकाशमेतस्मात्पुरात्प्रस्थाय निशि मिमृतं च प्रत्यावृत्य मात्रैव महावकाशे निजनिवासनिवेशे सुखेन वस्तव्यम् । उत्तरत्राहं जानामि । भट्टः तथास्तु। ततोऽन्यदा तया परनिकेतिपाञ्या धाग्या सदुराचाराभिषणः कडारपिङ्गः सुप्तजनसमये समानीतः 'समभ्यसतु तावदिहैवेयमयं च महीमूलं यियासुः पातालावासदु:खम्' इत्यनुभ्याय तया पनया 'महावर्तस्य गर्तस्योपरि कल्पिातायामवानायां बटवायां क्रमेणोपवेशितवपुषौ तौ बावपि दुरातकावण्ये श्वभ्रमध्ये विनिपेततुः । अनुबभूवतुब मिलिलपरिजनोच्छिष्टसिक्थजीवनी कुम्भीपाकोपक्रमं षट्समाशाखान्दुःखक्रमम् । . पुनरेकदा 'स्वाम्यादेशविशेषविदुष्यः पुष्यः तथाविधपक्षिप्रसवसमर्थपक्षिणीसहितं कृतपब्जरपरिकल्पं किअल्पमादाय आगच्छंत्रिचतुरेषु वासरेवस्यां पुरि प्रविशति' इति प्रसिद्धम् । प्रवर्तिनी भट्टिनी विविधवर्णविडम्बितकायेन चटकचकोरचाषचातकाविछदच्छादितप्रतीकनिकायेन पञ्जरालयेन तवयन सह चिरप्रवासोचितवेषजोष्यं पुण्यं पुरोपवने विनिवेश्य भट्टोद्भूतारम्भसंभाषणसनाथसखोजनसंकल्पा धृतपोषितभर्तकार्कल्पाभि'मुलमयासीत् । अपरेयुः स निखिलगुणविशेष्यः पुष्यः पृथिवीपतिभवनमनुगम्य 'देव, अयं स किजल्पः पक्षो, इयं च तत्प्रसवित्री पतत्रिणी च' इत्याचरत् । राजा - (चिरं निर्वर्ण्य निर्णीय च स्वरेण । ) पुरोहित, नैष खलु किअल्पः पक्षी, किं तु कडारपिङ्गोऽयम् । एषापि विहङ्गी न भवति, किं तु तडिल्लतेयं कुट्टिनी। पुण्या-देव, एतत्परिक्षाने प्रगल्भमतिप्रसवः सचिवः। राक्षा सचिवस्तथा पृष्टः मातलं प्रविविओरिवं क्षोणीतलमवालोकत । राजा - पुष्य, समास्तामयं, भवानतद्व्यतिकरं कथयितुमर्हति । पुष्यः - स्वामिन् , कुलपालिका प्रगल्भते॥भूपतिः भट्टिनीमाहूय 'अम्ब, कोऽयं व्यतिकरः' इत्यपृच्छत् । भट्टिनी गतमुदन्तमास्यत्-काश्यपीश्वरः शैलूष इव हर्षामर्षोत्कर्षस्थामवस्थामनुभवन्निखिलान्तःपुरपुरन्ध्रीजनवन्धमानपादपनां पन्नां तैस्तैः सतीजनप्रहादनवचनैः सम्मानसन्निधानैरलङ्कारदानैश्चोपचर्य, प्रवेश्य च वेदविद्विजोह्यमानकीरथारूढां वेश्म', पुनः 'अरे निहीन, किमिह नगरे न सन्ति सकललोकसाधारणभोगाः सुभगाः सीमन्तिन्यः, येनैवमाचरः। कथं च दुराचार, एवमाचरन्नात्र विलायं विलीनोऽसि । तदिदानीमेव यदि भवन्तं तृणाङ्कुरमिव तृणेमि तदा न बहुकृतमपकृतं स्यात्' इति निर्वरं निर्भय॑ दुर्नयगरभुजङ्ग कडारपिङ्ग कुट्टिनीमनोरथातिथिसत्रिणमुग्रसेनमन्त्रिणं च निखिलजनसमक्षमाक्षारणापूर्वकं प्रावासयत् । दुष्प्रवृत्तानङ्गमायह तङ्गः कडारपिङ्गस्तथा प्रजाप्रत्यक्षमाक्षारितः सुचिरमेतदेनःफलमनुभूय 'दशमीस्थः सन् श्वभ्रप्रभवभाजनं जनमभजत । भवति चात्र श्लोकः -- राजा - मन्त्री ! यह पक्षी कहाँ पैदा होता है और उसकी शक्ल कैसी होती है ? मंत्री - स्वामी ! भगवान् महादेव के श्वसुर हिमालय पर्वत की रलशिखण्ड नाम की चोटी के समीप में एक गुफा है, जिसमें सब प्रकार के पक्षी उत्पन्न होते हैं। जटायु, वैनतेय, वैशम्पायन आदि पक्षी उसी गुफामें पैदा हुए थे। उसी गुफामें किञ्जल्प नामका पक्षी उत्पन्न होता है ।उस गुफा को मैं और पुष्य अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि हम दोनों भगवती नन्दा की यात्रा करने गये थे ।उसका आकार मनुष्य की तरह होता है और वह अनेक रंगका होता है। राजा - (बड़े कौतूहलसे ) मंत्री ! उसके दर्शनकी मेरी अभिलाषा कैसे सफल हो ? मंत्री स्वामी ! मेरे या पुण्य के जाने से आपकी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है। राजा - मंत्री ! तुम बहुत वृद्ध हो इसलिए पुष्य को भेज दो। मंत्री - स्वामी ! तो पुष्य को उत्तम रत्नजड़ित कंकण पारितोषिक में दीजिए और रास्तेके लिए बहुत-सी आवश्यक सामग्री भी। राजा - अच्छा। आज्ञा पाकर पुष्य घर आया ।उसका मत था कि आज्ञा में संकल्प विकल्प नहीं करना चाहिए। अतः आते ही जाने की तैयारी करने लगा। पतिव्रता पद्मा ने यह देखकर पूछा'स्वामी ! यह असमयमें जानेकी तैयारी क्यों ?' पुष्य - प्रस्तुत बात को कहता है। पद्मा - यह सब कपटी मन्त्रीका जाल है। पुष्य - ऐसा करनेका कारण क्या ? पद्मा ने सब कुछ कह सुनाया। पुष्य - फिर अब क्या करना चाहिए ? पद्मा - यही करना चाहिए कि दिन चढ़ने पर इस नगर से प्रस्थान करो और रात में चुपचाप लौट कर अपने इसी बड़े मकान के किसी एक हिस्से में सुख से निवास करो। आगे जो करना है वह मैं कर लूंगी। पुष्य - ठीक है। दूसरे दिन जब सब सो गये तो वह ठगनी धाय उस दुराचारी कडारपिंग को लेकर आयो। उधर पद्माने यह सोचकर कि 'ये दोनों नरकगामी इसी जन्म में नरकके दुःखों को सहने का अभ्यास क्यों न करें अपने घर में एक खूब गहरा गढ़ा खुदवाकर उसके ऊपर बिना बुनी खाट बिछा दी और खाटपर एक कपड़ा डाल दिया। वे दोनों जैसे ही उस खाट पर बैठे दोनों उस गड्ढे में गिर गये ।और छह मासतक सबका झूठा भात खाकर नरकके समान दुखोंको भोगते रहे। एक दिन सारे नगर में यह बात फैल गयी कि स्वामी की आज्ञा का पालक पुष्य एक पिंजरे में किअल्प पक्षी को और इस प्रकार के पक्षीको जन्म दे सकने वाली पक्षिणी को लेकर जा रहा है और तीन चार दिन में वह इस नगरमें प्रवेश करेगा। उधर पद्मा ने उन दोनों के शरीरों को अनेक रंगों से रँगा और चिड़िया, चकोर, नीलकण्ठ, चातक आदि पक्षियों के पर उनपर चिपका दिये ।तथा पिंजरे में बन्द करके उन दोनों के साथ अपने पति पुष्य को चिर प्रवास के योग्य वेश बनाकर पहले से नगरके बाहर स्थित उपवन में भेज दिया । और आप विरहिणी स्त्री का वेश बनाकर पुरोहित के अद्भुत कार्य के सम्बन्ध में बातचीत करने के लिए जातुर सहेलियों के साथ पति से मिलने गयी। दूसरे दिन गुणी पुष्य राजभवन में जाकर बोला-"महाराज ! यह किंजल्प पक्षी है और उसको जन्म देने वाली पक्षिणी है।' राजा-(बहुत देरतक देखकर और स्वरसे पहचान कर ) पुरोहित ! यह किञ्जल्प पक्षी नहीं है, यह तो कडारपिंग है। यह भी पक्षिणी नहीं है किन्तु कुट्टिनी तडिल्लता है। पुष्य-स्वामी ! इनको पहचानने मन्त्रीजी बहुत प्रवीण हैं। राजा ने मन्त्री से उन्हें पहचानने के लिए कहा तो मन्त्री पृथ्वी को देखता रह गया, मानो पृथ्वीमें समा जाना चाहता है। राजा - पुष्य ! मन्त्री को रहने दो, तुम सब समाचार कहो। पुष्य - स्वामी ! मेरी पत्नी ही यह काम कर सकने में समर्थ है। राजा ने पद्मा को बुलाकर कहा - "माता! यह क्या मामला है ?" पद्मा ने सब बीता वृत्तान्त सुना दिया । वृत्तान्त सुनते-सुनते कभी राजा नट की तरह प्रसन्न होता था और कभी क्रोध से तमतमा उठता था। सब सुनकर अन्तःपुर की स्त्रियों ने पद्मा के पैर पड़े और राजाने सती स्त्रियों के योग्य आनन्ददायक वचनों से और आदरसूचक वस्त्राभरण के प्रदानसे पद्मा को सम्मानित करके पालकी में बैठाकर उसके घर पहुंचा दिया । फिर कुट्टिनी और कडारपिङ्ग का तिरस्कार करते हुए बोला-"अरे नीच ! क्या इस नगरमें वेश्याएँ नहीं हैं जो तूने ऐसा आचरण किया ।अरे दुराचारी ! ऐसा करते हुए तू मर क्यों नहीं गया ? अतः यदि इसी समय मैं तुझे तिनके-की तरह नष्ट कर डालूँ तो यह तेरा बहुत अपकार नहीं कहलायेगा।" इस प्रकार बुरी तरहसे तिरस्कार करके दुराचारी कडारपिङ्गको और कुट्टिनी के साथी उग्रसेन मन्त्री को सब लोगों के सामने फटकारते हुए देश से निर्वासित कर दिया । इस प्रकार व्यभिचार के लिए प्रजा के सामने तिरस्कृत होकर कामी कडारपिङ्ग बहुत समय तक इस पाप का फल भोगता रहा। फिर मरकर नरक में चला गया। इस विषयमें एक श्लोक है, जिसका भाव इस प्रकार है - मन्मथोन्माथितस्वान्तःपरस्त्रीरतिजासधीः।
कामसे पीड़ित और परस्त्री सन्भोग के लिए उत्सुक कडारपिङ्ग परस्त्री गमन के संकल्पसे नरक में गया ॥431॥कडारपिङ्गः संकल्पानिपपात रसातले ॥431॥ इत्युपासकाध्ययनेऽब्रह्मफल सारणो नामैकत्रिंशत्तमः कल्पः । इस प्रकार उपासकाध्ययन में दुराचार के फल को बतलानेवाला एकतीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । |