ग्रन्थ :
नारदस्तमेव निर्वेदमुररीकृत्य नर्तविभ्रमभ्रमरकुलनिलयनीलोत्पलस्तूपमिव कुन्तलकलापमुन्मूल्य परमनिष्किञ्चनतानिरूपं जातरूपमास्थाय सकलसत्त्वाभयप्रदानामृतवर्षाधिकरणं संयमोपैकरणमाकलेय्य मुक्तिलक्ष्मीसमागमसंचारिकाभिवोदकपरिचारिकामाहत्य शिवश्रीवशीकरणाध्यायमिव स्वाध्यायमर्नुबद्धय मनोमर्कटक्रीडाप्रकाममिन्द्रियाराममुपरम्य अन्तरात्महेमाश्मेसेमस्तमलदहनं ध्यानदहनमुहीप्य संजातकेवलस्तत्पदाप्तिपेशलो बभूव । पर्वतस्तु तथा सर्वसभासमाजोदीरितोहीर्घदुरपवादरजसि मिथ्यासाक्षिपक्षविचक्षणवक्षसि दुराचारक्षणषुभितसहस्राक्षाचरीक्षितजीवितमहसि कथाशेषतेजसि "वसौ सति मेहस्वहीणतया पौरापचिकीर्षयों च निरन्तरोदश्वरोमाञ्चनिकायः शललेशलाकानिकीर्णकाय इव निजागणेयदुरीहितामा तोदरचर्मपुटः स्फुटभिव च तैर्नृपतिविनाशवशामर्षिभिः संभूयोपदिष्टलोष्टवर्षिभिरतुच्छपिछोलेदलास्फालनप्रकर्षिभिः प्रतिघातोच्छलच्छकलकषाप्रहारतर्षिभि नगरनिवासहर्षिभिर्ज नैरगणितापकारं सरासमारोहणावतारं कण्ठप्रदेशप्राप्तप्राणः पुरुपूत्कतोल्वणकाणः सकलपुरवीथिषु विश्वरघुष्ठानुजातो निष्काशितः श्वपचस्मशानांशुकपिहितमेहनो विपरीतक्षुरधाराचरितमार्गमुण्डनः प्रकाशितशिखाश्रीफलजालो गलनालावलम्बित. शरावमालः प्रथीयसि वनगहनरहसि प्रविष्टः तुच्छोदकद्वीपिनीतटिनोतनिकटोपविष्टस्तेन कालासुरेण दृष्टः। प्रत्यवमृष्टहचेष्टेन 'चाहं तावद्वैकारिकप्रिचिकाशयिषुशक्तिः एषोऽपि स्वमतप्रतितिष्ठापयिषुमतिप्रसक्तिरतः निष्प्रतिघः खलु मे कार्योलाघः' इति निभृतं वितयं पर्याप्तपरिबाजकवेषेण मायामयमनीषेण भाषितश्च। तथा हि-'पर्वत, केन खलु समासन्नकीनाशकेलिनर्मणा दुष्कर्मणा विनिर्मापितनिर्वरोपकारः' । पर्वतः-'तात, को भवान् । 'पर्वत, भवत्पितुः खलु प्रियसुहृदहं सहाध्यायी शाण्डिल्य इति नामाभिधायी। यदा हि वत्स, भवान्घोडन्समभवत्तदाहं तीर्थयात्रायामगाम् । इदानीं चोगाम् । अतो न भवान्मां सम्यगवधारयति । तत्कथय हन्त कारणमस्य व्यतिकरस्य'। पर्वतः-'मत्प्राणितपरित्राणसअन् भगवन् , समाकर्णय। समस्तागमरत्नसन्निधातरि सुकृतमणिसमाहर्तरि जिनरूपानुजातरि पितरि नाकलोकमिते सति स्वातन्त्र्यादेकदा प्रदीप्तनिकामकामोद्रमः संपन्नपण्यासनाजनसमागमः कृतपिशितकापिसायनस्वादः पापकर्मप्रासादः चेतनप्यार्योपदिष्टं विशिष्टं व्याख्यानमहं दुरात्माख्यानः" स्वव्यसनविवृद्धये धर्मबुया साधुमध्ये अजैर्यष्टव्यमितीदं वाक्यमशेषकल्मषनिषेक्योऽन्यथोपन्यस्यमानो नारदेनापादितवयमस्खलनः सन् एतावद्विपत्तिस्थामवस्थामवापम् । ' कालासुर:-'पर्वत, मा शोच । मुञ्च त्वमशेषं धिषणाकलुषम् । अङ्ग, साधु सम्बोधयात्मानम् । न खलु निरीहस्य नरस्यास्ति काचिन्मनीषितावाप्तिः। तदलं हन्तं हृदयदाहानुगेनावेगेन । हहो पुत्र पर्वत, यथा स्वकीयसंकेता ब्राह्मगोसवाश्वमेधसौत्रामणिवाजपेयराजसूयपुण्डरीकप्रभृतीनां सप्ततन्तूनां प्रतिपादकानि वाक्यानि विरचय्य अन्तरान्तरा वेदवचनेषु निवेशय । वत्स, मयि भूर्भुवःस्वस्त्रयीविपर्यासनसमर्थमन्त्रमाहात्म्ये, त्वयि च तरसासवसवित्रीप्रवृत्तिहेतुश्रुतिगीतिसमभ्यस्तसात्म्ये, किं नु नामेहासाध्यम्' इत्युत्साह्य स्वयं विद्यावष्टम्भसृष्टाभिरष्टाभिरैपीतिभिरुपयमाणजनपदहृदयमयोध्याविषयमागत्य नगरबाहिरिकायां स देवश्चतुराननोऽभूत् । 'अध्वर्युः पर्वतः समासीत् । मायामयसृष्टयः पिङ्गलमनु-मतङ्ग-मरोचि-गौतमादयश्च ऋत्विजोऽजनिषत । तत्र अतिधृतिश्चतुर्भिर्वदनरुपदिशति । पर्वतस्तु यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥397॥ ब्राह्मणे ब्राह्मणमालभेत, इन्द्राय क्षत्रिय, मरुद्भ्यः वैश्य, तमसे शद्रम् , उत्तमसे तस्करं, आत्मने क्लीवं, कामाय पुंश्चलमप्रतिक्रुष्टाय मागधं, गीताय सुतम् , आदित्याय स्त्रियं गर्भिणी, सौत्रामणौ य एवंविधां सुरां पिवति, न तेन सुरा पीता भवति । सुराचे तिन एव श्रुतौ संमताः-पैष्टी, गौडी, माधवी चेति । गोसवे ब्राह्मणो गोसवेनेष्वा संवत्सरान्ते मातरमप्यमिलषति । उपेहि मातरम् , उपेहि स्वसारम् । इस घटना से नारद को बड़ा वैराग्य हुआ। उसने केशलोंच करके नग्न दिगम्बर होकर सकल जीवों को अभयदान देनेवाले संयम के उपकरण पीछी और कमण्डलु ग्रहण कर लिये ।और स्वाध्यायपूर्वक, मनरूपी बन्दरके खेलने के स्थान इन्द्रियरूपी उपवन को बन्द करके, अन्तरात्मारूपी स्वर्णपाषाण के समस्त मल को जलाने में समर्थ ध्यान रूपी अग्नि को प्रदीप्त किया। तथा केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गया। राजा वसु के मर जाने पर अत्यन्त लजा तथा पुरवासी जनों के तीव्र तिरस्कार के कारण पर्वत को क्रोध से रोमांच हो आया। उसे ऐसी पीड़ा हुई मानो सेही के काँटों से उसका शरीर बीधा गया है। अपने असंख्य दुष्ट संकल्पों के कारण उसका पेट फटने-सा लगा। उधर नगरवासी लोग राजा की मृत्युसे ऋद्ध होकर उसके ऊपर ईंट-पत्थरों की वर्षा करने लगे। उन्होंने उसे गधेपर चढ़ाकर समस्त नगर में घुमाया । पीछे-पीछे कुत्ते भोंकते जाते थे। ईट-पत्थरों की वर्षा होती जाती थी। मार्गमें उल्टे उस्तरे से सिर मुंडा जाता था। गलेमें फूटे ठीकरों की माला पड़ी थी। चाण्डाल के कफन के टुकड़े से उसकी नग्नता को ढाँक दिया गया था। बेचारा रास्ते-भर चिल्लाता जाता था। कष्ट से प्राण कण्ठमें आ गये थे। इस रूप में उसे नगरसे निकाल दिया गया और वह एक घने जंगल में घुसकर एक नदी के किनारे बैठ गया । वहाँ उसे कालासुर नाम के व्यन्तरने देखा ।उसके मनकी दशा जानकर कालासुर ने सोचा-'मैं अपनी विक्रिया शक्ति को दिखलाना चाहता हूँ और यह अपना मत चलाना चाहता है अतः मेरा काम निर्विघ्न होगा।' ऐसा विचारकर उसने संन्यासी का वेष धारण किया और मायावी बुद्धिसे बोला-'पर्वत ! जल्दी ही यमराज की क्रीड़ा के शिकार बननेवा ले किस दुष्टने तुम्हारे साथ यह निष्ठुर व्यवहार किया है ?' पर्वत- पिता ! आप कौन हैं ? 'मैं तुम्हारे पिता का सहपाठी मित्र हूँ। मेरा नाम शाण्डिल्य है। जब तुम्हारे दाँत निकले थे तब मैं तीर्थयात्रा के लिए चला गया था। और अब लौटा हूँ। इसलिए तुम मुझे नहीं पहचानते हो । अपनी इस विपत्ति का कारण बतलाओ' । पर्वत - 'मेरे प्राणों के रक्षक भगवन् ! सुनिए । समस्त आगमरूपी रत्नों के धारक और पुण्यरूपी मणियों के संग्राहक मेरे पिता जिन-दीक्षा धारण करके जब स्वर्गलोक को चले गये तो मैं स्वतन्त्र हो गया। एक दिन मैंने काम के वशीभूत होकर वेश्या सेवन किया और मांस-मदिरा का स्वाद लिया। 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वाक्य का पिताजी ने जो व्याख्यान किया था उसे जानते हुए भी मुझ दुरात्मा ने अपने व्यसन की पुष्टि के लिए उसे बदल कर अन्यथा रूप से कहा । नारदने मेरी इस गलती को पकड़ लिया । बस, उसीसे मेरी यह दुर्दशा हुई है।' कालासुर - 'पर्वत ! रंज मत कर, और इस सब बुद्धि विकार को दूर कर' अपने को सम्बोध । जो मनुष्य निरीह है उसकी मनोवाञ्छा पूरी नहीं होती। अतः हृदयको जलाने वाले शोक को छोड़। और पुत्र पर्वत ! अपने संकेत से चिह्नित ब्राह्ममेध, गोमेध, अश्वमेध, सौत्रामणि, वाजपेय, राजसूय, पुण्डरीक आदि यज्ञों के प्रतिपादक वाक्यों को रचकर वेद में जगह-जगह मिला दो। पुत्र ! मेरे में 'भूर्भुवः स्वः' इत्यादि मन्त्र को बदलने की सामर्थ्य के होते हुए और मांस-मदिरा आदि में प्रवृत्ति कराने वाले वेदमन्त्रों की रचना में सिद्धहस्त तुम्हारे होते हुए ऐसा कौन काम है जो हम नहीं कर सकते।' इस प्रकार पर्वत को उत्साहित करके उस कालासुर ने अपनी विद्या के बलसे अतिवृष्टि आदि आठ ईतियों को समस्त देश में फैला दिया । तथा आप अयोध्या नगरी में आकर ब्रह्मा का रूप धारण करके नगर के बाहर बैठ गया। पर्वत यजुर्वेद का ज्ञाता पुरोहित बना। मायामयी पिंगल, मनु, मतङ्ग, मरीचि, गौतम वगैरह होता बन गये। ब्रह्माजी चारों मुखों से उपदेश देते थे। और पर्वत आदेश देता था । ब्रह्माजी ने स्वयं यज्ञ के लिए ही पशुओं की सृष्टि की है। यज्ञ सबकी समृद्धि के लिए है इसलिए यज्ञ में किया जाने वाला पशुवध वध नहीं है ॥397॥ ब्रह्मा के लिए ब्राह्मण का वध करना चाहिए, इन्द्र के लिए क्षत्रिय का वध करना चाहिए, वायु के लिए वैश्य का वध करना चाहिए, तम के लिए शूद्रका वध करना चाहिए, गाढ़तम के लिए चोर का वध करना चाहिए, आत्मा के लिए नपुंसक का वध करना चाहिए, काम के लिए बदमाश का वध करना चाहिए, अप्रतिकृष्ट के लिए मागध का वध करना चाहिए, गीत के लिए पुत्र का वध करना चाहिए, सूर्य के लिए गर्भिणी स्त्री का वध करना चाहिए। सौत्रामणि यज्ञ में जो अमुक प्रकार की शराब पीता है वह शराब नहीं पीता । तीन प्रकार की शराब वेदसम्मत है-पैष्टी–जो जौ वगैरह के आटे से बनायी जाती है, गौडी-जो गुड़से बनायी जाती है, और माधवी, जो महुए से बनती है। गोसव यज्ञ में ब्राह्मण तुरत के जन्मे हुए गौके बछड़े से यज्ञ करके वर्ष के अन्त में माता से भी भोग करता है । माता के पास जाओ, बहन के पास जाओ। षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि ।
अश्वमेध यज्ञ में मध्य के दिन तीन कम छह सौ अर्थात् पाँच सौ सत्तानवे पशु मारे जाते हैं ऐसा वचन है ॥398॥अश्वमेधस्य वचनादूनानि पशुभित्रिभिः ॥398॥ महोक्षो वा महाजो वा श्रोत्रियाय विशस्यते ।
श्रोत्रिय के लिए महान् बैल अथवा बकरा मारा जाता है। तथा माला गन्ध वगैरह विधिपूर्वक अर्पित की जाती है ॥399॥ मिवेद्यते तु दिव्याय स्रक्सुगन्धनिधिविधिः ॥399॥ गोसवे सुरभि हन्याद्राजसूये तु भूभुजम् ।
गोसव यज्ञ में गाय का वध करना चाहिए। राजसूय यज्ञ में राजा का वध करना चाहिए ।अश्वमेध में घोड़े का वध करना चाहिए और पौण्डरीक यज्ञ में हाथी का वध करना चाहिए ॥400॥अश्वमेधे हयं हन्यात्पौण्डरीके च दन्तिनम् ॥400॥ औषभ्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणो नराः ।
औषधि, पशु, वृक्ष, तिर्यश्च, पक्षी और मनुष्य ये सब यज्ञ में मारे जाने से उच्चगति पाते हैं ॥401॥ यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितां गतिम् ॥401॥ मानवं व्यासवासिष्ठं वचनं वेदसंयुतम् ।
मनु, व्यास, वसिष्ठ आदि ऋषियों के वचनों को और वैदिक वचनों को जो अप्रमाण बतलाता है वह ब्रह्मघाती है ॥402॥अप्रमाणं तु यो ब यात्स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥402॥ पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् ।
पुराण, मानवधर्म मनुस्मृति, साङ्गवेद और आयुर्वेद ये चार स्वयं प्रमाण हैं । इन्हें युक्तियों से खण्डित नहीं करना चाहिए ॥403॥आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ॥403॥ इति मनु-मरीचि-मतङ्गप्रभृतयश्च सवर्षटकारमजद्विजगजवाजिप्रभृतीन्देहिनो जुङ्गति । तदेवं श्रुतिशतैवाणिज्यजित्योपजीविनामीतोः पर्वतो व्यपोहति । कालासुरः पुनरालभ्य॑मानान् प्राणिनः साक्षाद्विमानारूढान्स्वर्गे सांवर्या पर्यटतो दर्शयति । मनुप्रमुखाश्च मुनयः प्रभावयन्ति। ततो मायाप्रदर्शितत्रिदशवेश्मप्रवेशादिलोभे सआते सकलजनक्षोभे सप्रत्यासन्ननरकनगरः सगरः, स च श्वभ्रविभ्रमोचितस्थितिर्विश्वभूतिस्तदुपदेशात्तांस्तान्सत्त्वान् हत्वा प्सात्त्वा च दुरन्तदुरितचित्तचेतसौ मखमिषात्कालासुरेण स्मारितपूर्वभवागसौ वीतिहोत्रा'. तिविहितविचित्रवधरहसौ विचित्राया धरियाद्राधीयो दुःखदथुमन्थरं तलमगाताम् । पर्वतोऽप्यग्नायीपतिविजये"जठरधनञ्जये च हव्यकव्यकर्मभिः समाचरितसमस्तसत्त्वसंहारः कालासुरतिरोधानविधुरविधिसारस्तद्विरहातकशोक शोचिःक्लेशकृश्यच्छरीरः कालेन "जीनजीवितप्रचारः सप्तमरसावसरः समपादि । भवति चात्र श्लोकः -- इस तरह की आज्ञाएँ पर्वत देता था ।और मनु, मरीचि, मतङ्ग आदि ऋषि 'स्वाहा' शब्द के साथ बकरा, द्विज, हाथी, घोड़ा वगैरह प्राणियों से होम करते थे । इस प्रकार वेद से जीविका करने वाले ब्राह्मणों में, शस्त्र से जीविका करने वाले क्षत्रियों में, व्यापार से जीविका करने वाले वश्यों में और खेती आदि से जीवि का करने वाले कृषकों में कालासुर ने जो बीमारियाँ फैलायी थीं उन्हें पर्वत दूर करता था, और कालासुर मारे गये प्राणियों को अपनी माया के द्वारा विमान में सवार कराकर स्वर्गको जाते हुए दिखाता था। मनु वगैरह मुनि इससे दूसरों को प्रभावित करते थे। इस प्रकार जब सब लोगों में माया के द्वारा दिखलाये गये स्वर्ग गमन के लोभ से हलचल मच गयी तो नरकगामी सगर और विश्वभूति पुरोहित ने भी कालासुर के उपदेश से बहुतसे प्राणियों का वध किया और उन्हें खाया। इससे उनका चित्त पाप में लिप्त हो गया। फिर कालासुरने उन दोनों के पूर्व जन्म में किये गये अपराधका स्मरण कराकर यज्ञ के बहाने से उन दोनों को यज्ञ की अग्नि में होम दिया, और वे दोनों मरकर तीसरे नरक में चले गये । पर्वतने भी अग्नि को तिरस्कृत करने वाली अपनी जठराग्नि में देवताओं और पितरों की तृप्ति के बहाने समस्त प्राणियों का संहार कर डाला । कालासुर तो अपना काम करके अन्तर्धान हो गया। अतः उसके बिना उसकी सब विधि फीकी पड़ गयी। कालासुर के विरह रूपी संतापके शोक से उसकी दशा शोचनीय हो गयी। क्लेश से उसका शरीर कृश हो गया। अन्तमें मरण करके वह सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ। इसके विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -- मृषोद्यादीनवोद्योगात्पर्वतेन समं वसुः ।
'झूठ बोलने के दोष के कारण पर्वत के साथ वसु भी सातवें नरक को गया, जहाँ सदा संताप रूपी अग्नि जलती रहती है ॥404॥जगाम जगतीमूलं ज्वलदातकपावकम् ॥404॥ इत्युपासकाध्ययने असत्यफलसूचनो नाम त्रिंशत्तमः कल्पः। इस प्रकार उपासकाध्ययन में असत्य के फल का सूचक तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । |