+ उक्त तीन महादण्डकों में अपुनरुक्त प्रकृतियाँ -
पढमे सव्वे विदिये पण तिदिये चउ कमा अपुणरुत्ता
इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसु वि अपुणरुत्ता ॥27॥
अन्वयार्थ : [पढमे] प्रथम की [सव्वे] सभी, [विदिये] द्वितीय की [पण] पांच और [तिदिये] तृतीय की [चउ] ४ प्रकृति [कमा] क्रमश: [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है, [इदि] ये [तिदंड] तीन दण्डक [एसु] संबंधी ८० [पयडी] प्रकृतियाँ [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


प्रथमे सर्वे द्वितीये पंच तृतीये चतु: क्रमादपुनरुक्त्ता:;;इति प्रकृतिनामशीति: त्रिदंडकेष्वपि अपुनरुक्त्ता ॥
प्रथम दण्डक (गाथा २०), में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यन्चों के बंध योग्य ७१ प्रकृतियों का उल्लेख है ये सभी अपुनरुक्त है(जीव.चू.३,सू २;ध.पु.६,पृ१३३), क्योकि प्रकृतियाँ प्रथम दण्डक सबंधी है । द्वितीय दण्डक; (जीव चू ४ सू २ ;ध.पु.६ पृ २१०) गाथा २२, में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यदृष्टि देव तथा पृथ्वी से छट्टी पृथ्वी तक नारकी संबंधी बंध योग्य ७२ प्रकृतियों का कथन है उन में से, ६७ प्रकृतियाँ प्रथम दण्डक संबंधी ही है किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वृषभनाराच सहनन, ५ प्रकृति प्रथम दंडक संबंधी नही है । तृतीय दंडक (जीव चू.५,सूत्र २ ;ध.पु. ६पृ १४१) पृथ्वी के नारकी के प्रकृतियों के बंध का उल्लेख है (गाथा २३) उस में जीव तिर्यंचगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत, इन ४ प्रकृतियों के अतिरिक्त ६९ प्रकृतियाँ द्वितीय दंडक संबंधी प्रकृतियों का बंध करता है । ये चार प्रकृतियाँ प्रथम और द्वितीय दंडक है इसलिए अपुनरुक्त प्रकृति है । प्रकार प्रथम दण्डक की सर्व ७१,द्वितीय दण्डक की ५,और तीसरे दण्डक की ४, कुल ८० प्रकृतियाँ अपुनरुक्त है ।