एदेहिं विहीणाणं तिण्णि महादंडएसु उत्ताणं
एकट्ठिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसंबंधणं कुणदि ॥26॥
अन्वयार्थ : [एदेहिं] गाथा २५ में कही १९ कर्म प्रकृतियों [विहीणाणं] से रहित [तिण्णि] तीन [महादंडएसु] महादण्डक अर्थात २१, २२, २३ शेष [एकट्ठि पमाणाणं] ६१ प्रकृतियों का [अणुक्कस्स] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधणं] बंध [कुणदि] करते हैं ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


एतैर्विहीनानां त्रिषु महादंड केषूक्तानाम्;;एक षष्टि प्रमाणानामुत्कृष्टप्रदेशबंधनं ॥२६॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख, मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बांधी जाने वाली प्रकृतियों का उल्लेख तीन महादण्डको में किया गया है, प्रथम महादण्डक में मनुष्य और तिर्यचों के बंध योग्य प्रकृतियों का, दुसरे में देवों और प्रथम छः पृथ्वियों के नारकियों के बंध योग्य प्रकृतियों और तृतीय महादण्डक में सातवी पृथ्वी के नारकियो द्वारा बंध योग्य प्रकृतियों का कथन है । (ज. ध. पु. १२,पृ. २१३,ध. पु. ६,पृ. २०९-१० ) गाथा २५ मे कही १९ प्रकृतियों का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेश बंध होता है । ज्ञानावरणीय -५, दर्शनावरणीय-६, साता वेदनीय, अप्रत्यख्यानवरण -प्रत्याख्यावरण -संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ --१२ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्मण-शरीर, औदारिक-शरीर अंगो-पांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, मनुष-गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, स्थिर, शुभ, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र, और अंतराय -५ इन ६१ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेश बंध होता है ।(ज. ध. पु.१२,पृ. २१३)