+ प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के उदय प्रकृति संबंधी स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशों की उदय-उदीरणा का कथन -
उद इल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि
विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥29॥
अजहण्णमणुक्कस्स्प्देसमणुभवदि सोदयाणं तु
उद्यिल्लाणं पयडिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥30॥
अन्वयार्थ : [उदइल्लाणं] उदयवान प्रकृतियों का [उदये] उदय प्राप्त होने पर [पत्तेक्कठिदिस्स] एक स्थिति का [वेदगो] वेदक [होदि] होता है । [असत्थे] अप्रशस्त प्रकृतियों के [विच] द्वि [उट्ठाणं] स्थानरूप और [सत्थे] प्रशस्त प्रकृतियों कर [चतु:] चतु:स्थानरूप उदयमान [रस] अनुभाग को [भुत्ती] भोगता है ।
[उदयल्ल] उदरूप प्रकृतियों के [अजहण्णम] अजघन्य [णुक्कस्स्प्देसम] अनुत्कृष्ट प्रदेशों को [णुभवदि] अनुभव करता है । [उद्यिल्लाणं] उदयस्वरूप [पयडि] प्रकृतियों के [चउक्काणं] प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग का [उदीरगो] उदीरणा [होदि] करता है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


उदयवतामुदये प्राप्ते एकस्थितिकस्य वेदको भवति;;द्विचतु:स्थानमशस्ते शस्ते उदीयमानरस भुक्ति:॥२९॥;;अजघन्यमनुत्कृष्टप्रदेशमनुभवति सोदयानां तु;;उदयवतां प्रकृतिचतुष्काणामुदीरको भवति ॥३०॥
१-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के जिन प्रकृतियों का उदय है,उन प्रकृतियों की स्थिति क्षय से उदय में प्रविष्ट एक स्थिति का वेदक होता है शेष स्थितियों अवेदक होता है। उक्त जीव के अप्रशस्त प्रकृतियों के उदय में दारु और लता रूप अथवा निम्ब कांजी रूप द्विस्थानीय अनुभाग का वेदक होता है । उदय में आयी प्रशस्त प्रकृतियों ककए चतु:स्थानीय अनुभाग का वेदक होता है । जिन प्रकृतियों का वेदक होता है, उन प्रकृतियों के प्रकृति-स्थिति और प्रदेशों की उदीरणा करता है ।

शंका – उदय और उदीर्ण में अंतर क्या है ?

समाधान –
जो कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षणादि प्रयोग के बिना स्थिति क्षय को प्राप्त होकर अपना अपना फल देते है,उन कर्म स्कन्धों की संज्ञा उदय है । जो महान स्थिति और अनुभाग में अवस्थित कर्म-स्कन्ध अपकर्षित करके फल देने योग्य किये जाते है उन कर्मस्कन्धों की उदीरणा संज्ञा है , क्योंकि अपक्व कर्म-स्कन्ध के पाचन करने को उदीर्ण कहते है । ध. पु. ६ पृ। २१३ पर अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशों का उदय कहा है किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ.२२९ पर अनुत्कृष्ट प्रदेश पिंड का उदय कहा है ।