बोधिनी :
द्वित्रिआयुःतीर्थाहारचतुष्कैःसम्यत्वेन हीना वा;;मिश्रेणो वापि च सर्वेषां प्रकृतीनां भवेत् सत्तवम्॥३१॥
१-प्रथमोपशम सम्यक्त्व अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव यदि अबद्धायुष्क है तो उसके भुजयमान आयु अतिरिक्त ३ आयु का और यदि बद्धायुष्क है तो भुजयमान और बद्धयमान आयु के अतिरिक्त दो आयु का सत्त्व नही होता इस स्थिति में क्रमश शेष (१४८-१०) = १३८ और (१४८-९) = १३९ प्रकृतियों का सत्त्व होता है ।२-किसी ने तीर्थंकर प्रकृति के बंध से पूर्व दुसरे या तीसरे नरकायु का बंध किया हो तो उसका सम्यक्त्व एक अंतर्मूर्हत के लिए छूटता है और वह मिथ्यात्व में जाता है (ध.पु. ८,पृ.१०४) । पुन: वेदक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग पर्यन्त वेदक-सम्यक्तव का उत्पत्ति-काल है - (गो.क.गा.१६५ )। वेदक सम्यक्त्व के उत्पत्ति काल के बाद प्रथमोपशम सम्यक्त्व का ग्रहण हो सकता है - (गो.क.गा.१६५ ;ध. पु. ५।.पृ ९-१०,३३-३४)। आहारक-चतुष्क का उद्वेलना-काल से, वेदक-सम्यक्त्व का उत्पत्ति-काल बड़ा है (गो.क. गा. ६१३;ज. ध.पु.१२पृ.२०९) अत: आहरक-चतुष्क के उद्वेलना के बिना प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उत्पन्न नही हो सकता । प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख किसी जीव के सम्यक्त्व प्रकृति का सत्त्व नही होती और किसी के सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृति का सत्त्व नहीं होता है । ३-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के आठों मूल प्रकृतियों का सत्त्व होता है । उत्तर-प्रकृतियों में ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, वेदनीय-२, मोहनीय की मिथ्यात्व, १६ कषाय और ९ नो कषाय -- ये २६ प्रकृतियां सत्कर्म रूप से होती है, क्योंकि अनदि-मिथ्यादृष्टि तथा २६ प्रकृतियों के सत्कर्म वाले सादि मिथ्यादृष्टि के इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादि मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति के अतिरिक्त मोहनीय कर्म की २७ प्रकृतियों सत्कर्म रूप होती है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के उनके होने में कोई विरोध नही है । अथवा सम्यक्त्व प्रकृति के साथ २८ प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप होती है, क्योंकि वेदक सम्यक्त्व के योग्य काल को उल्लंघन कर जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की पूर्ण रूप से उद्वेलना नही करी है, ऐसे उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के उक्त प्रकार से २८ प्रकृतियों का सद्भाव देखा जाता है । आयुकर्म की एक या दो प्रकृतियाँ सत्कर्म-रूप होती है और जिसने परभव संबंधी आयु का बंध नही किया, उसके आयु-कर्म की दो और जिसने किया है उसके भुज्यमान आयु की एक प्रकृति होती है । नाम कर्म की गति ४, जाति ५, औदारिक, वैक्रियिक-तेजस-कार्माण शरीर-४ इन्ही के संबंधी बंधन-४ और संघात-४, संस्थान-६, आहारकशरीर अंगोपांग १, संहनन ६, वर्ण, रस गंध, स्पर्श ४, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु १,उपघात-परघात २, उच्छ्वास १, आतप-उद्योत-२, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगगति २, त्रस-स्थावर आदि युगल १०, निर्माण ये प्रकृतियाँ तथा अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप है । |