जीवतत्त्वप्रदीपिका :
अहं वक्ष्यामि । अहं अर्थात् मैं जो हूँ ग्रंथकर्ता । वक्ष्यामि अर्थात करूंगा, किं ? किसे करूंगा ? प्ररूपणं अर्थात् व्याख्यान अथवा अर्थ को प्ररूपनेवाले वा अर्थ जिसके द्वारा प्ररूपित किया जाय ऐसा जो ग्रंथ, उसको करूंगा । कस्य प्ररूपणं? किसका प्ररूपण कहूंगा ? जीवस्य अर्थात् चार प्राणों से जीता है, जीयेगा और जीया है ऐसा जीव जो आत्मा, उस जीव के भेदों का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र मैं कहूंगा-ऐसी प्रतिज्ञा की है । इस प्रतिज्ञा द्वारा इस शास्त्र के संबन्धाभिधेय, शक्यानुष्ठान, इष्टप्रयोजनपना है; इसलिये बुद्धिवंतों के द्वारा आदर करने योग्य कहा है ।
भावार्थ –- यह शास्त्र मोक्ष का कारण है । तथा विकथादिरूप बंध का कारण नहीं है । इस विशेषण द्वारा १) बंधक २) बंध्यमान ३) बंधस्वामी ४) बंधहेतु ५) बंधभेद -- ये पांच सिद्धांत के अर्थ हैं । वहां
किं कृत्य ? क्या करके ? प्रणम्य अर्थात् प्रकर्षपने नमस्कार करके प्ररूपण करता हूँ । कं किसे ? जिनेन्द्रवर नेमिचन्द्रं - कर्मरूपी वैरियों को जीते, वह जिन । अपूर्वकरण परिणाम को प्राप्त प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख सातिशय मिथ्यादृष्टि, वे जिन कहलाये । वे ही हुये इन्द्र, कर्म-निर्जरारूप ऐश्वर्य, उसका भोक्ता को आदि देकर सर्व जिनेन्द्रों में वर अर्थात् श्रेष्ठ, असंख्यातगुणि महानिर्जरा के स्वामी ऐसे चामुण्डराय द्वारा निर्मापित महापूत चैत्यालय में विराजमान नेमि नामक तीर्थंकरदेव, वे ही भव्य-जीवों को चंद्रयति अर्थात् आह्लाद करे वा समस्त वस्तुओं को प्रकाशे अथवा संसार आताप और अज्ञान अंधकार के नाशक ऐसे जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्र । पुनश्च कैसा है? अकलंकं अर्थात् कलंक-रहित, उनको नमस्कार करके मैं जीव का प्ररूपण कहूंगा । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं - कं प्रणम्य ? किसे नमस्कार करके जीव का प्ररूपण करता हूँ ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं - नेमिचन्द्र नामक बाइसवें जिनेन्द्र तीर्थंकर देव, उन्हें नमस्कार करके जीव की प्ररूपणा करता हूँ । कैसे हैं वे ? सिद्धं अर्थात् समस्त लोक में विख्यात हैं । पुनश्च कैसे हैं ? शुद्धं अर्थात् द्रव्य-भावस्वरूप घातिया-कर्मों से रहित हैं । तथापि कोई संशयी उन्हें क्षुधादि दोषों का संभव कहते हैं, उनके प्रति कहते हैं - कैसे हैं वे ? अकलंकं - नहीं विद्यमान हैं कलंक अर्थात् क्षुधादिक अठारह दोष जिनके, ऐसे हैं । पुनश्च कैसे हैं ? गुणरत्नभूषणोदयं -- गुण जो अनंत ज्ञानादिक, वे ही हुये रत्न के आभूषण, उनका है उदय अर्थात् उत्कृष्टपना जिनमें ऐसे हैं । इसप्रकार अन्य में नहीं पाये जाय ऐसे असाधारण विशेषण, समस्त अतिशयों के प्रकाशक, अन्य के आप्तपने की वार्ता को भी जो सहे नहीं ऐसे इन विशेषणों द्वारा इसी भगवान के परम आप्तपना, परम कृतकृत्यपना, हमसे आदि देकर जो अकृतकृत्य हैं, उनके शरणपना प्रतिपादन किया है, ऐसा जानना । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं -- कं प्रणम्य ? किसे नमस्कार करके जीव का प्रतिपादन कर रहे हो ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं - सम्पूर्ण आत्मा के प्रदेशों में सघन बंधे हुये जो घातिकर्मरूप मेघपटल, उनके विघटन से प्रकटीभूत हुये अनंत ज्ञानादिक नव केवललब्धिपना; इसलिये जिन कहते हैं । पुनश्च अनुपम परम इश्वरता द्वारा सम्पूर्णपना होने से इन्द्र कहते हैं । जिन सो ही इन्द्र सो जिनेन्द्र, अपने ज्ञान के प्रभाव से व्याप्त हुआ है तीन काल सम्बन्धी तीन लोक का विस्तार जिसके ऐसा जिनेन्द्र, वर अर्थात् अक्षर संज्ञा से चौबीस, कैसे ? कटपयपुरस्थवर्णैः इत्यादि सूत्र की अपेक्षा य र ल व में से वकार चौथा अक्षर उसका चार का अंक और रकार दूसरा अक्षर, उसका दो का अंक, अंकों की बांयें तरफ गति है, इसतरह वर शब्द से चौबीस का अर्थ हुआ । पुनश्च अपने अद्भुत पुण्य के माहात्म्य से नागेन्द्र, नरेन्द्र, देवेन्द्र के समूह को अपने चरणकमल में नमावे उन्हें नेमि कहते हैं । अथवा धर्मतीर्थरूपी रथ के चलावने में सावधान है, इसलिये जैसे रथ के पहिये के नेमि-धुरी है; वैसे वह तीर्थंकरों का समुदाय धर्मरथ में नेमि कहते हैं । पुनश्च चन्द्रयति अर्थात् तीन लोक के नेत्ररूप चन्द्रवंशी कमलवनों को आह्लादित करे, उसे चन्द्र कहते हैं । अथवा जिसके वैसे रूप की सम्पदा का सम्पूर्ण उदय होता है, जिस रूपसम्पदा की तुलना में इन्द्रादिकों की सुन्दरता का समीचीन सर्वस्व भी परमाणु के समान हलका होता है, सो जो नेमि वही चन्द्र सो नेमिचन्द्र, वर अर्थात् चौबीस संख्यायुक्त जो नेमिचन्द्र, वह वरनेमिचन्द्र, जो जिनेन्द्र वही वरनेमिचन्द्र, सो जिनवरनेमिचन्द्र अर्थात् वृषभादि वर्धमान पर्यंत तीर्थंकरों का समुदाय, उन्हें नमस्कार करके जीव का प्ररूपण कहता हूँ; ऐसा अभिप्राय है । अवशेष सिद्ध आदि विशेषणों का पूर्वोक्त प्रकार सम्बन्ध जानना । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं - प्रणम्य अर्थात् नमस्कार करके । कं ? किसे? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं । जयति अर्थात् जीते, भेदे, विदारे कर्म-पर्वत-समूह को, उन्हें जिन कहते हैं । पुनश्च नाम का एकदेश सम्पूर्ण नाम में प्रवर्तता है - इस न्याय से इन्द्र अर्थात् इन्द्रभूति ब्राह्मण, उसका वा इन्द्र अर्थात् देवेन्द्र, उसका वर अर्थात् गुरु ऐसा इन्द्रवर श्री वर्धमान-स्वामी, पुनश्च नयति अर्थात् अविनश्वर पद को प्राप्त करे शिष्य समूह को, उन्हें नेमि कहते हैं । पुनश्च समस्त तत्त्वों को प्रकाशते हैं चन्द्रवत्, इसलिये चन्द्र कहते हैं । जिन वे ही इन्द्रवर, वे ही नेमि, वे ही चन्द्र, ऐसे जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्र वर्धमान-स्वामी उन्हें नमस्कार करके जीव का प्ररूपण कर रहा हूँ । अन्य सम्बन्ध पूर्वोक्त प्रकार जानना । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं -- प्रणम्य - नमस्कार करके । कं ? किसे? सिद्धं अर्थात् सिद्ध हुआ, वा निष्ठित - सम्पूर्ण हुआ वा निष्पन्न (जो) होना था वह हुआ । वा कृतकृत्य जो करना था, वह जिसने किया । वा सिद्धसाध्य, सिद्ध हुआ है साध्य जिसके, ऐसे सिद्धपरमेष्ठी बहुत हैं, तथापि जाति एक है, इसलिये द्वितीया विभक्ति का एकवचन कहा । उसके द्वारा सर्व क्षेत्र में, सर्व काल में, सर्व प्रकार से सिद्धों का सामान्यपने से ग्रहण करना । सो सर्व सिद्धसमूह को नमस्कार करके जीव का प्ररूपण करता हूँ, ऐसा अर्थ जानना । सो कैसा है ? शुद्धं अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के द्रव्य-भावस्वरूप कर्म से रहित है । पुनश्च कैसा है ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं- अनेक संसारवन सम्बन्धी विषम कष्ट देने को कारण कर्म वैरी, उसे जीते, वह जिन । पुनश्च इंदन अर्थात् परम ऐश्वर्य उसका योग, उससे राजते अर्थात् शोभता है, वह इन्द्र । पुनश्च यथार्थ पदार्थों को नयति अर्थात् जानता है, वह नेमि अर्थात् ज्ञान, वर अर्थात् उत्कृष्ट अनंतरूप जिसके पाया जाता है, वह वरनेमि । पुनश्च चंद्रयति अर्थात् आह्लादरूप होकर परम सुख को अनुभवे, वह चन्द्र । यहां सर्वत्र जाति अपेक्षा एकवचन जानना । सो जो जिन, वही इन्द्र, वही वर नेमि, वही चन्द्र, ऐसा जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्र सिद्ध है । पुनश्च कैसा है ? अकलंकं अर्थात् नहीं विद्यमान है कलंक अर्थात् अन्यमतियों द्वारा कल्पना किया हुआ दोष जिसके, ऐसा है । पुनश्च कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं गुण अर्थात् परमावगाढ़ सम्यक्त्वादि आठ गुण, वे ही हुये रत्न-आभूषण, उनका है उदय अर्थात् अनुभवन वा उत्कृष्ट प्राप्ति जिसके, ऐसा है । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं - प्रणम्य नमस्कार करके । कं ? किसे ? कं अर्थात् आत्मद्रव्य, उसे नमस्कार करके जीव का प्ररूपण करता हूँ । कैसा है? अकलं अर्थात् नहीं विद्यमान है कल अर्थात् शरीर जिसके, ऐसा है । पुनश्च कैसा है ? सिद्धं अर्थात् नित्य अनादिनिधन है । पुनश्च कैसा है ? शुद्धं अर्थात् शुद्धनिश्चयनय के गोचर है । पुनश्च कैसा है ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं - जिन जो असंयत सम्यग्दृष्टि आदि, उनका इन्द्र अर्थात् स्वामी है, परम आराधने योग्य है । पुनश्च वर अर्थात् समस्त पदार्थों में सारभूत है । पुनश्च नेमिचन्द्र अर्थात् ज्ञान-सुखस्वभाव को धरता है । सो जिनेन्द्र, वही वर, वही नेमिचन्द्र, ऐसा जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्र आत्मा है । पुनश्च कैसा है । गुणरत्नभूषणोदयं - गुणानां अर्थात् समस्त गुणों में रत्न अर्थात् रत्नवत् पूज्य प्रधान ऐसा जो सम्यक्त्वगुण उसका है उदय अर्थात् उत्पत्ति जिसके अथवा चूंकि आत्मानुभव से सम्यक्त्व होता है, इसलिये आत्मा गुणरत्नभूषणोदय है । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं -- प्रणम्य नमस्कार करके । कं ? किसे ? सिद्धं अर्थात् सिद्ध परमेष्ठियों के समूह को, सो कैसा है ? शुद्धं अर्थात् दग्ध किये है आठ कर्मूल जिन्होंने । पुनश्च किसे ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं जिनेन्द्र अर्थात् अर्हत परमेष्ठियों का समूह, सो वराः अर्थात् उत्कृष्ट जीव गणधर, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणेन्द्रादिक भव्यप्रधान वे ही हुये नेमि अर्थात् नक्षत्र, उनमें चन्द्र अर्थात् चन्द्रमावत् प्रधान, ऐसा जिनेन्द्र, वही वरनेमिचन्द्र उस अर्हत्परमेश्वरों के समूह को । सो कैसा है ? अकलंकं अर्थात् दूर किया है तिरसठ कर्म-प्रकृतिरूप मल कलंक जिसने ऐसा है । केवल उन्हीं को नमस्कार करके नहीं, अपितु गुणरत्नभूषणोदयं गुणरूपी रतन सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र वे ही हुये भूषण अर्थात् आभरण, उनका है उदय अर्थात् समुदाय जिसके ऐसा आचार्य, उपाध्याय, साधु-समूह उसको, इसतरह सिद्ध, अरहंत, आचार्य, उपाध्याय, साधुरूप पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करके जीव का प्ररूपण करता हूँ । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं - प्रणम्य अर्थात् नमस्कार करके, कं ? किसे ? जीवस्य प्ररूपणं अर्थात् जीवों का निरूपण वा ग्रंथ, उसे नमस्कार करके कहता हूँ । सो कैसा है ? सिद्धं अर्थात् सम्यक् गुरुओं के उपदेशपूर्वकपने से अखंड प्रवाहरूप से अनादि से चला आया है । पुनश्च कैसा है ? शुद्धं अर्थात् प्रमाण से अविरोधी अर्थ के प्रतिपादनपने से पूर्वापर से, प्रत्यक्ष से, अनुमान से, आगम से, लोक से, निजवचनादि से विरोध - इनसे अखंडित है । पुनश्च कैसा है ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं - जिनेन्द्र अर्थात् सर्वज्ञ, सो है वर अर्थात् कर्ता जिसका, ऐसा जिनेन्द्रवर अर्थात् सर्वज्ञप्रणीत है । इस विशेषण द्वारा वक्ता के प्रमाणपना से वचन का प्रमाणपना दिखाया है । पुनश्च यथावस्थित अर्थ को नयति अर्थात् प्रतिपादन करता है, प्रकाशता है, वह नेमि कहलाता है । पुनश्च चंद्रयति अर्थात् आह्लादित करता है, विकासता है शब्द, अर्थ, अलंकारों द्वारा श्रोताओं के मनरूपी कमलों को, वह चन्द्र अर्थात् जिनेन्द्रवर, वही नेमि, वही चन्द्र, ऐसा जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्र प्ररूपण है । पुनश्च कैसा है ? अकलंकं अर्थात् दूर से ही छोड़ दिये हैं शब्द-अर्थ-गोचर दोष-कलंक जिन्होंने, ऐसा है । पुनश्च कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं - गुणरत्न जो रत्नत्रयरूप भूषण अर्थात् आभूषण, उनकी है उदय अर्थात् उत्पत्ति वा प्राप्ति, हम आदि जीवों के जिनसे, ऐसा गुणरत्नभूषण प्ररूपण है । अथवा अन्य अर्थ कहते हैं -- चामुण्डराय के जीवप्ररूपणशास्त्र के कर्तापने का आश्रय करके मंगलसूत्र व्याख्यान करते हैं । भावार्थ –- इस गोम्मटसार का मूलगाथाबंध ग्रंथकर्ता नेमिचन्द्र आचार्य है । उसकी टीका कर्णाटक-देशभाषा द्वारा चामुण्डराय ने की है । उसके अनुसार केशव नामक ब्रह्मचारी ने संस्कृत टीका की है । सो चामुण्डराय की अपेक्षा से, इस सूत्र का अर्थ करते हैं । अहं जीवस्य प्ररूपणं वक्ष्यामि मैं जो हूँ चामुण्डराय, सो जीव का प्ररूपणरूप ग्रंथ का टिप्पण उसे कहूंगा । किं कृत्वा ? क्या करके ? प्रणम्य नमस्कार करके । कं ? किसे ? जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रं जिनेन्द्र है वर अर्थात् भर्ता, स्वामी जिसका, वह जिनेन्द्रवर । यहां जिन अर्थात् कर्म-निर्जरा संयुक्त जीव, उनमें इन्द्र अर्थात् स्वामी अर्हत्, सिद्ध । पुनश्च जिन है इन्द्र अर्थात् स्वामी जिनका ऐसे आचार्य, उपाध्याय, साधु; ऐसे जिनेन्द्र शब्द से पंच परमेष्ठि आये । उनके आराधन से उपजे हुये जो सम्यग्दर्शनादिक गुण, उनसे संयुक्त अपने परमगुरु नेमिचन्द्र आचार्य, उनको नमस्कार करके जीवप्ररूपणा कहूंगा । सो कैसा है ? सिद्धं अर्थात् प्रसिद्ध है वा वर्तमान काल में प्रवृत्तिरूप समस्त शास्त्रों में निष्पन्न है । पुनश्च कैसा है ? शुद्धं अर्थात् पच्चीस मल-रहित सम्यक्त्व जिसके है वा अतिचार रहित चारित्र जिसके है । वा देश, जाति, कुल से शुद्ध है । पुनश्च कैसा है ? अकलंकं अर्थात् विशुद्ध मन, वचन, काय संयुक्त है । पुनश्च कैसा है ? गुणरत्नभूषणोदयं - गुणरत्नभूषण अर्थात् चामुण्डराय राजा, उसके है उदय अर्थात् ज्ञानादिक की वृद्धि जिनसे, ऐसे नेमिचन्द्र आचार्य है । इसतरह इष्ट विशेषरूप देवताओं को नमस्कार करना है लक्षण जिसका, ऐसे परम मंगल को अंगीकार करके इसके अनंतर अधिकारभूत जीवप्ररूपणा के अधिकारों का निर्देश करते हैं । |