जीवतत्त्वप्रदीपिका :
यहां चौदह गुणस्थान, अट्ठानवे जीवसमास, छह पर्याप्ति, दश प्राण, चार संज्ञा, मार्गणा में चार गति-मार्गणा, पांच इन्द्रिय-मार्गणा, छह काय-मार्गणा, पंद्रह योग-मार्गणा, तीन वेद-मार्गणा, चार कषाय-मार्गणा, आठ ज्ञान-मार्गणा, सात संयम-मार्गणा, चार दर्शन-मार्गणा, छह लेश्या-मार्गणा, दो भव्य-मार्गणा, छह सम्यक्त्व-मार्गणा, दो संज्ञी-मार्गणा, दो आहार-मार्गणा, दो उपयोग -- ऐसे ये जीव प्ररूपणा बीस कही हैं । यहां निरुक्ति करते हैं -- गुण्यते अर्थात् जानते हैं द्रव्य से द्रव्यांतर जिसके द्वारा, उसे गुण कहते हैं । पुनश्च कर्म उपाधि की अपेक्षा सहित ज्ञान-दर्शन उपयोगरूप चैतन्य प्राण द्वारा जीता है वह जीव, सम्यक् प्रकार आसते अर्थात् स्थितिरूप होता है जिनमें वे जीव-समास हैं । पुनश्च परि अर्थात् समंतता से आप्ति अर्थात् प्राप्ति, सो पर्याप्ति है । शक्ति की निष्पन्नता का होना सो पर्याप्त जानना । पुनश्च प्राणंति अर्थात् जीता है, जीवितव्यरूप व्यवहार को योग्य होता है जीव जिनके द्वारा, वे प्राण हैं । पुनश्च आगम में प्रसिद्ध वांछा, संज्ञा, अभिलाषा ये एकार्थ हैं । पुनश्च जिनसे वा जिनमें जीव हैं, वे मृग्यंते अर्थात् अवलोकन किये जाते हैं वह मार्गणा है । वहां अवलोकन करनेवाला मृगयिता तो भव्यों में उत्कृष्ट, प्रधान तत्त्वार्थश्रद्धावान जीव जानना । पुनश्च अवलोकना मृग्यता के साधन को वा अधिकरण को प्राप्त, वे गति आदि मार्गणा हैं । पुनश्च मार्गणा जो अवलोकन, उसका जो उपाय, सो ज्ञान-दर्शन का सामान्य भावरूप उपयोग है । इसतरह इन प्ररूपणाओं के साधारण अर्थ का प्रतिपादन किया । |