+ गुणस्थान का लक्षण -
जेहिं दु लक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं
जीवा ते गुणसण्णा, णिद्दिट्ठा सव्वदरसीहिं ॥8॥
अन्वयार्थ : दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं उन जीवों को सर्वज्ञदेव ने उसी गुणस्थान वाला और उन परिणामों को गुणस्थान कहा है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे उन बीस प्ररूपणाओं में पहले कही जो गुणस्थान प्ररूपणा, उसके प्रतिपादन के अर्थ प्रथम गुणस्थान शब्द का निरुक्तिपूर्वक अर्थ कहते हैं --

मोहनीय आदि कर्मों का उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम परिणामरूप जो अवस्थाविशेष, उनके होते हुये उत्पन्न हुये जो भाव अर्थात् जीव के मिथ्यात्वादिक परिणाम, उनसे लक्ष्यंते अर्थात् लक्षित किये जाते हैं, देखे जाते हैं, लांछित किये जाते हैं जीव, वे जीव के परिणाम गुणस्थान संज्ञा के धारक हैं - ऐसा सर्वदर्शी जो सर्वज्ञदेव, उनके द्वारा निर्दिष्टाः अर्थात् कथित हैं । इस गुण शब्द की निरुक्ति की प्रधानता युक्त सूत्र द्वारा मिथ्यात्वादिक अयोगी केवलीपना पर्यन्त ये जीव के परिणामविशेष, वे ही गुणस्थान हैं - ऐसा प्रतिपादन किया है । वहां
  • अपनी स्थिति के नाश के वश से उदयरूप निषेक में गले जो कार्माण स्कंध, उनका फल देनेरूप जो परिणमन, वह उदय है । उसके होनेपर जो भाव होते हैं, वे औदयिक भाव हैं ।
  • पुनश्च गुण के प्रतिपक्षी जो कर्म, उनके उदय का अभाव, वह उपशम है । उसके होनेपर जो हो, वह औपशमिक भाव है ।
  • पुनश्च प्रतिपक्षी कर्मों का पुनः न उपजे ऐसा जो नाश होना, वह क्षय; उसके होनेपर जो हो, वह क्षायिक भाव है ।
  • पुनश्च प्रतिपक्षी कर्मों का उदय विद्यमान होनेपर भी जीव के गुण का अंश दिखायी देता है, वह क्षयोपशम; उसके होनेपर जो हो, वह क्षायोपशमिक भाव है ।
  • पुनश्च उदयादिक की अपेक्षा से रहित जो परिणाम है, उसके होनेपर जो हो, वह पारिणामिक भाव है ।
इसतरह औदयिकादि पांच भावों का सामान्य अर्थ प्रतिपादन करके विस्तार से आगे उन भावों के महा अधिकार में प्रतिपादन करेंगे ।