सागारो उवजोगो, णाणे मग्गम्हि दंसणे मग्गे
अणगारो उवजोगो, लीणो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं ॥7॥
साकारो उपयोगो ज्ञानमार्गणायां दर्शनमार्गणायाम् ।
अनाकारो उपयोगो लीन इति जिनैर्निर्दिष्ट् ॥७॥
अन्वयार्थ : साकार उपयोग का ज्ञान-मार्गणा में एवं अनाकार उपयोग का दर्शन मार्गणा में अंतर्भाव हो सकता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने निर्दिष्ट किया है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

ज्ञानमार्गणा में साकार उपयोग गर्भित है । क्योंकि ज्ञानावरण, वीर्यांतराय के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञाता के परिणमन का निकटपना होते ही विशेष ग्रहणरूप लक्षण का धारी जो ज्ञान, उसकी उत्पत्ति होती है, इसलिये कार्य-कारण द्वारा किया एकत्व होता है । पुनश्च दर्शनमार्गणा में अनाकार उपयोग गर्भित है । क्योंकि दर्शनावरण, वीर्यांतराय के क्षयोपशम से प्रकट हुआ पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप व्यापार होते ही पदार्थ का सामान्य ग्रहणरूप लक्षण का धारी जो दर्शन, उसकी उत्पत्ति होती है, इसलिये कार्य-कारण भाव बनता है । इसतरह ये गर्भित भाव पूर्वोक्त रीति से जिन जो अर्हन्तादिक, उनके द्वारा निर्दिष्ट अर्थात् कहे हैं । पुनश्च अपनी रुचि से रचे हुये नहीं है । इस तरह जीव-समासादिक के मार्गणास्थान में गर्भित भाव के समर्थन द्वारा गुणस्थान और मार्गणास्थान ये दो प्ररूपणा प्रतिपादित की हैं । पुनश्च भेद-विवक्षा से बीस प्ररूपणा पूर्व में कही, उन्हीं को कहते हैं । पहले गाथा में भणिताः पद कहा था, उससे बीस प्ररूपणा परमागम में प्रसिद्ध हैं उनके प्रकाशन द्वारा उनके विशेष कथन में स्वाधीनपना, जो अपनी इच्छा के अनुसार कहना, उसे छोड़ा है । इसतरह यह न्याय वैसे ही जोड़ते हैं ।