जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे अन्य प्रकार से प्रस्तार दिखाते हैं -ह्न कषाय नामक दूसरे प्रमाद का जितना प्रमाण, उतने मात्र स्थानाें में विकथारूप पहले प्रमाद का समुदायरूप पिंड जुदा-जुदा स्थापित करके (४ ४ ४ ४), पुनश्च एक-एक पिंड प्रति द्वितीय प्रमादाें के प्रमाण का एक-एक रूप ऊपर स्थापना । भावार्थ – चार-चार प्रमाणसहित, एक-एक विकथाप्रमाद का पिंड, उसको दूसरा प्रमाद कषाय का प्रमाण चार, उसे चार जगह स्थापित करके, एक-एक पिंड के ऊपर क्रम से एक-एक कषाय स्थापित करना ।
पुनश्च ‘ऐसे ही सर्वत्र करना’ इस वचन से यह सोलह प्रमाण पिंड जो समुदाय, सो तीसरे इन्द्रिय प्रमाद का जितना प्रमाण, उतनी जगह स्थापना । सो पांच जगह स्थापित करके
भावार्थ –ह्न जुदे-जुदे इन्द्रिय प्रमाद के भेद पांच, सो पांच जगह पूर्वोक्त सोलह भेद स्थापित करके, एक-एक पिंड के ऊपर एक-एक इन्द्रिय भेद स्थापित करना ऐसे स्थापित करनेपर अधस्तन अर्थात् नीचे की अपेक्षा अक्षसंचार का कारणभूत दूसरा प्रस्तार होता है । सो इस प्रस्तार की अपेक्षा से आलाप जो भंग कहने का विधान, वह कैसा होता है ? वही कहते हैं -
पुनश्च ऐसे ही स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत की जगह रसना वा घ्राण वा चक्षु वा श्रोत्र इन्द्रिय के वशीभूत क्रम से कहकर एक-एक के सोलह-सोलह भेद होकर पांचों इन्द्रिय के अस्सी प्रमाद आलाप होते हैं । उन सब को जानकर व्रती पुरुष प्रमाद छोड़ें । भावार्थ –ह्न एक जीव के एक काल में कोई एक-एक, किसी भेदरूप विकथादिक होते हैं । इसलिये उनके पलटने की अपेक्षा पंद्रह प्रमादों के अस्सी भंग होते हैं । इसीप्रकार यह अनुक्रम चौरासी लाख उत्तरगुण, अठारह हजार शील के भेद, उनके भी प्रस्तार में करना । |