+ प्रस्तार - द्वितीय प्रकार -
णिक्खित्तु विदियमेत्तं, पढमं तस्सुवरि विदियमेक्केक्कं
पिंडं पडि णिक्खेओ, एवं सव्वत्थ कायव्वो ॥38॥
निक्षिप्त्वा द्वितीयमात्रं तस्यौपरि द्वितीयमेकैकम् ।
पिंडं प्रति निक्षेपः एवं सर्वत्र कर्तव्यः ॥३८॥
अन्वयार्थ : दूसरे प्रमाद का जितना प्रमाण है उतनी जगह पर प्रथम प्रमाद के पिण्ड को रखकर, उसके ऊपर एक-एक पिण्ड के प्रति आगे के प्रमाद में से एक-एक का निक्षेपण करना और आगे भी सर्वत्र इसी प्रकार करना ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे अन्य प्रकार से प्रस्तार दिखाते हैं -ह्न

कषाय नामक दूसरे प्रमाद का जितना प्रमाण, उतने मात्र स्थानाें में विकथारूप पहले प्रमाद का समुदायरूप पिंड जुदा-जुदा स्थापित करके (४ ४ ४ ४), पुनश्च एक-एक पिंड प्रति द्वितीय प्रमादाें के प्रमाण का एक-एक रूप ऊपर स्थापना ।

भावार्थ – चार-चार प्रमाणसहित, एक-एक विकथाप्रमाद का पिंड, उसको दूसरा प्रमाद कषाय का प्रमाण चार, उसे चार जगह स्थापित करके, एक-एक पिंड के ऊपर क्रम से एक-एक कषाय स्थापित करना ।

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ऐसा स्थापित करनेपर, उनका जोड़ सोलह पिंड प्रमाण होगा ।

पुनश्च ‘ऐसे ही सर्वत्र करना’ इस वचन से यह सोलह प्रमाण पिंड जो समुदाय, सो तीसरे इन्द्रिय प्रमाद का जितना प्रमाण, उतनी जगह स्थापना । सो पांच जगह स्थापित करके
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, इनके ऊपर तीसरे इन्द्रिय प्रमाद का प्रमाण एक-एक रूप (रूप = १ अंक) द्वारा स्थापित करना ।

भावार्थ –ह्न जुदे-जुदे इन्द्रिय प्रमाद के भेद पांच, सो पांच जगह पूर्वोक्त सोलह भेद स्थापित करके, एक-एक पिंड के ऊपर एक-एक इन्द्रिय भेद स्थापित करना ऐसे स्थापित करनेपर अधस्तन अर्थात् नीचे की अपेक्षा अक्षसंचार का कारणभूत दूसरा प्रस्तार होता है ।

सो इस प्रस्तार की अपेक्षा से आलाप जो भंग कहने का विधान, वह कैसा होता है ? वही कहते हैं -
  • स्त्रीकथालापी-क्रोधी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा अस्सी भंगों में प्रथम भंग है ।
  • पुनश्च भक्तकथालापी-क्रोधी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा दूसरा भंग है ।
  • पुनश्च राष्ट्रकथालापी-क्रोधी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा तीसरा भंग है ।
  • पुनश्च अवनिपालकथालापी-क्रोधी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा चौथा भंग है ।
इसीतरह क्रोध की जगह मानी वा मायावी वा लोभी क्रम से कहकर चार चार भंग होते हैं । चारों कषायों के एक स्पर्शन इन्द्रिय में सोलह आलाप होते हैं ।

पुनश्च ऐसे ही स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत की जगह रसना वा घ्राण वा चक्षु वा श्रोत्र इन्द्रिय के वशीभूत क्रम से कहकर एक-एक के सोलह-सोलह भेद होकर पांचों इन्द्रिय के अस्सी प्रमाद आलाप होते हैं । उन सब को जानकर व्रती पुरुष प्रमाद छोड़ें ।

भावार्थ –ह्न एक जीव के एक काल में कोई एक-एक, किसी भेदरूप विकथादिक होते हैं । इसलिये उनके पलटने की अपेक्षा पंद्रह प्रमादों के अस्सी भंग होते हैं ।

इसीप्रकार यह अनुक्रम चौरासी लाख उत्तरगुण, अठारह हजार शील के भेद, उनके भी प्रस्तार में करना ।