+ प्रथम प्रस्तार का परिवर्तन -
तदियक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदियक्खो
दोण्णि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि पढमक्खो ॥39॥
प्रथमाक्ष अंतगतः आदिगते संक्रामति द्वितीयाक्षः ।
द्वावपि गत्वांतमादिगते संक्रामति तृतीयाक्षः ॥३९॥
अन्वयार्थ : प्रथमाक्ष जो विकथारूप प्रमाद-स्थान वह घूमता हुआ जब क्रम से अंत-तक पहुँचकर फिर स्त्री-कथा-रूप आदि स्थान पर आता है, तब दूसरा कषाय का स्थान क्रोध को छोड़कर, मानपर आता है । इसी प्रकार जब दूसरा कषाय-स्थान भी अन्त को प्राप्त होकर फिर आदि (क्रोध) स्थान पर आता है, तब तीसरा इन्द्रिय-स्थान बदलता है । अर्थात् स्पर्शन को छोड़कर रसना पर आता है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

अब पूर्व में कहा हुआ जो दूसरा प्रस्तार, उसकी अपेक्षा अक्षपरिवर्तन अर्थात् अक्षसंचार, उसका अनुक्रम कहते हैं -

पहला प्रमाद का अक्ष अर्थात् भेद विकथा, वह आलाप के अनुक्रम से अपने अंत तक जाकर पुनश्च पलट कर अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त हो, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, वह अपने दूसरे स्थान को प्राप्त होता है ।

भावार्थ – आलापों में पहले तो विकथा के भेदों को पलटकर, क्रम से स्त्री, भक्त, राष्ट्र, अवनिपालकथा चार आलापों में कहना । और अन्य प्रमादों का पहलापहला ही भेद इन चारों आलापों में ग्रहण करना । उसके पश्चात् पहला विकथा प्रमाद अपने अंतिम अवनिपालकथा पर्यंत जाकर, पलटकर अपने स्त्रीकथारूप प्रथम भेद को जब प्राप्त हो, तब दूसरा प्रमाद कषाय, वह अपना पहला स्थान क्रोध को छोड़कर, द्वितीय स्थान मान को प्राप्त होता है । पुनश्च प्रथम प्रमाद का अक्ष पूर्वोक्त अनुक्रम से संचार करता हुआ अपने अंत पर्यंत जाकर, पलट कर युगपत् अपने प्रथम स्थान को जब प्राप्त हो, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, वह अपने तीसरे स्थान को प्राप्त होता है ।

भावार्थ – दूसरा कषाय प्रमाद दूसरा भेद मान को प्राप्त हुआ, वहां भी पूर्वोक्त प्रकार पहला भेद क्रम से चार आलापों में पलटकर अपने अंत भेद तक जाकर, पलटकर अपना प्रथम भेद स्त्रीकथा को प्राप्त हो, तब कषाय प्रमाद अपना तीसरा भेद माया को प्राप्त होता है । पुनश्च ऐसा ही संचार करता हुआ, पलटता हुआ दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, वह जब अपने अंतिम भेद को प्राप्त हो, तब प्रथम अक्ष विकथा, वह भी अपने अंतिम भेद को प्राप्त होता है ।

भावार्थ – पूर्वोक्त प्रकार चार आलाप माया में, चार आलाप लोभ में होने पर कषाय अक्ष अपना अंतिम भेद लोभ, उसको प्राप्त हुआ । और इनमें पहला अक्ष विकथा, वह भी अपना अंतिम भेद अवनिपालकथा, उसे प्राप्त हुआ; ऐसे होने पर सोलह आलाप हुये ।

पुनश्च ये दोनों अक्ष विकथा और कषाय पलटकर अपने प्रथम स्थान को प्राप्त हुये, तब तीसरा प्रमाद का अक्ष अपना प्रथम स्थान छोड़कर, दूसरे स्थान को प्राप्त होता है । और इस ही अनुक्रम से प्रथम और द्वितीय अक्ष का क्रम से अपने अंतिम भेद तक जानना । पुनश्च पलटने के द्वारा तीसरा प्रमाद का अक्ष इन्द्रिय, सो अपने तीसरे आदि स्थान को प्राप्त होता है, ऐसा जानना ।

भावार्थ – विकथा और कषाय अक्ष पलटकर अपने प्रथम स्थान स्त्रीकथा और क्रोध को प्राप्त हो, तब इन्द्रिय अक्ष में पहले सोलह आलापों में पहला भेद स्पर्शनइन्द्रिय था, सो वहां रसनाइन्द्रिय होकर, वहां पूर्वोक्त प्रकार अपने अंतिम भेद तक जाय, तब रसनाइन्द्रिय में सोलह आलाप होते हैं । पुनश्च उसीप्रकार वे दोनों अक्ष पलटकर अपने प्रथम स्थान को प्राप्त हो, तब इन्द्रिय अक्ष अपना तीसरा भेद घ्राणइन्द्रिय को प्राप्त होता है, इसमें पूर्वोक्त प्रकार सोलह आलाप होते हैं । पुनश्च इसी क्रम से सोलह-सोलह आलाप चक्षु, श्रोत्र इन्द्रिय में होनेपर, सर्व प्रमाद के अक्ष अपने अंतिम भेद को प्राप्त होते हैं । यह अक्षसंचार का अनुक्रम नीचे के अक्ष से लेकर, ऊपर के अक्ष पर्यंत विचार द्वारा प्रवर्ताना । पुनश्च अक्ष की सहनानी (चिह्न) हंसपद है, उसका आकार (ह्न) ऐसा जानना ।