जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अक्ष-परिवर्तन कहते हैं - तीसरा प्रमाद का अक्ष इन्द्रिय, वह आलाप के अनुक्रम द्वारा अपने अंत तक जाकर, स्पर्शनादि क्रम से पांच आलापों में श्रोत्र पर्यंत जाकर, पुनश्च पलटकर युगपत् अपने प्रथम स्थान स्पर्शन को प्राप्त हो, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, वह पहले क्रोधरूप प्रथम स्थान को प्राप्त था, उसको छोड़कर अपने दूसरे स्थान मान को प्राप्त होता है । वहां पुनश्च तीसरा प्रमाद का अक्ष इन्द्रिय, सो पूर्वोक्त अनुक्रम से अपने अंतिम भेद पर्यंत जाकर, पलटकर युगपत् प्रथम स्थान को प्राप्त हो, तब दूसरा प्रमाद का अक्ष कषाय, वह दूसरा स्थान मान को छोड़कर, अपने तीसरा स्थान माया को प्राप्त होता है । वहां भी पूर्वोक्त प्रकार विधान होकर, इसप्रकार क्रम से दूसरा प्रमाद का अक्ष जब एक बार अपने अंतिम भेद लोभ को प्राप्त हो, तब तीसरा प्रमाद का अक्ष इन्द्रिय, वह भी क्रम से संचार करते हुये अपने अंतिम भेद को प्राप्त होता है, तब बीस आलाप होते हैं । भावार्थ – एक-एक कषाय में इन्द्रियों के संचार से पांच-पांच आलाप होते हैं । पुनश्च वे इन्द्रिय और कषाय दोनों ही अक्ष पलटकर अपने-अपने प्रथम स्थान को युगपत् प्राप्त होते हैं, तब पहला प्रमाद का अक्ष विकथा, सो पहले बीसों आलापों में अपना प्रथम स्थान स्त्रीकथारूप उसको प्राप्त था, वह अब प्रथम स्थान को छोड़कर, अपना द्वितीय स्थान भक्तकथा को प्राप्त होता है । पुनश्च इसी अनुक्रम से पूर्वोक्त प्रकार से तृतीय, द्वितीय प्रमाद का अक्ष इन्द्रिय और कषाय, उनका अपने अंत तक जानना । पुनश्च इनके पलटने से प्रथम प्रमाद का अक्ष विकथा, वह अपने तृतीयादि स्थानों को प्राप्त होता है, ऐसा संचार जानना । भावार्थ – पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक विकथा के भेद में इन्द्रिय-कषायों के पलटने से बीस आलाप होते हैं, उसके चारों विकथाओं में अस्सी आलाप होते हैं । यह अक्षसंचार का अनुक्रम ऊपर अंतिम भेद इन्द्रिय के पलटने से लेकर क्रम से अधस्तन पूर्व-पूर्व अक्ष के परिवर्तन को विचार कर पलटना, ऐसे अक्षसंचार कहा । अक्ष जो भेद, उसके क्रम से पलटने का विधान ऐसे जानना । |