+ दूसरे प्रस्तार का गूढ़ यंत्र -
इगिवितिचखचडवारम् खसोलरागट्ठदालचउसट्ठिं
संठविय पमदठाणे, णट्ठुद्दिट्ठं च जाण तिट्ठाणे ॥44॥
एकद्वित्रिचतुःखचतुरष्टद्वादश खषोडशरागाष्टचत्वारिंशच्चतुःषष्टि् ।
संस्थाप्य प्रमादस्थाने नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ॥४४॥
अन्वयार्थ : दूसरे प्रस्तार की अपेक्षा तीनों प्रमाद-स्थानों में क्रम से प्रथम विकथाओं के स्थान पर १।२।३।४ स्थापन करना और कषायों के स्थान पर ०।४।८।१२ स्थापन करना और इन्द्रियों की जगह पर ०।१६।३२।४८।६४ स्थापन करना ऐसा करने से दूसरे प्रस्तार की अपेक्षा भी पूर्व की तरह नष्टोद्दिष्ट समझ में आ सकते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे दूसरे प्रस्तार की अपेक्षा से नष्ट, उद्दिष्ट का गूढ़ यंत्र कहते हैं -

प्रमादस्थानों में विकथा प्रमाद के चार कोठों में क्रम से एक, दो, तीन, चार अंकों को स्थापना, उसीप्रकार कषाय प्रमाद के चार कोठों में क्रम से शून्य, चार, आठ, बारह अंकों को स्थापना, उसीप्रकार इन्द्रिय प्रमाद के पांच कोठों में क्रम से शून्य, सोलह, बत्तीस, अड़तालीस, चौंसठ अंकों को स्थापना, पूर्वोक्त प्रकार के हेतु से उन तीनों स्थानकों में स्थापित जो अंक, उनमें नष्ट और समुद्दिष्ट को

तू जान ।

भावार्थ – यहां भी पूर्वोक्त प्रकार से तीन पंक्तियों का यंत्र करना । वहां ऊपर की पंक्ति में चार कोठे करना, वहां क्रम से स्त्री आदि विकथा लिखना और एक, दो, तीन, चार ये अंक लिखना । पुनश्च उसके नीचे की पंक्ति में चार कोठे करना, वहां क्रम से क्रोधादि कषाय लिखना और शून्य, चार, आठ, बारह ये अंक लिखना । पुनश्च नीचे की पंक्ति में पांच कोठे करना, वहां क्रम से स्पर्शनादि इन्द्रिय लिखना और शून्य, सोलह, बत्तीस, अड़तालीस, चौंसठ ये अंक लिखना ।

स्त्री १भक्त २राष्ट्र ३अव. ४
क्रोध ०मान ४माया ८लोभ १२
स्पर्शन ०रसना १६घ्राण ३२चक्षु ४८श्रोत्र ६४


ऐसे यंत्र द्वारा पूर्व में जैसा विधान कहा, वैसा यहां भी नष्ट, समुद्दिष्ट का ज्ञान करना ।

वहां नष्ट का उदाहरण - जैसे, पंद्रहवां आलाप कौनसा है ?

ऐसा प्रश्न होनेपर विकथा, कषाय, इन्द्रियों के जिस-जिस कोठे का अंक वा शून्य मिलानेपर, वह पंद्रह संख्या होती हैं, उस-उस कोठे को प्राप्त विकथादिक जोड़नेपर राष्ट्रकथालापी-लोभी-स्पर्शनइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसे उस पंद्रहवें आलाप

को कहते हैं ।

तथा दूसरा उदाहरण - तीसवां आलाप कौनसा है ? ऐसा प्रश्न होनेपर विकथा, कषाय, इन्द्रिय के जिस-जिस कोठे के अंक जोड़नेपर

वह तीस संख्या होती है, उस-उस कोठे को प्राप्त विकथादि प्रमाद जोड़नेपर, भक्तकथालापीलोभी-रसनाइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसे उस तीसवें आलाप को कहते हैं ।

अब उद्दिष्ट का उदाहरण कहते हैं - स्त्रीकथालापी-मानी-घ्राणइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालु-स्नेहवान ऐसा आलाप कितनेवां है ?

ऐसा प्रश्न होनेपर इस आलाप में जो-जो विकथादि प्रमाद कहे हैं, उस-उस प्रमाद के कोठे में जो जो अंक एक, चार, बत्तीस लिखे हैं, उनको जोड़नेपर सैंतीस होते हैं, इसलिये वह आलाप सैंतीसवां है ।

पुनश्च दूसरा उदाहरण - अवनिपालकथालापी-लोभी-चक्षुइन्द्रिय के वशीभूत-निद्रालुस्नेहवान ऐसा आलाप कितनेवां है ?

वहां इस आलाप में जो प्रमाद कहे हैं, उनके कोठों में प्राप्त चार, बारह, अड़तालीस अंक मिलानेपर वह संख्या चौंसठ होती है, इसीलिये उस आलाप को चौंसठवां कहते हैं, ऐसे ही अन्य आलाप पूछनेपर भी विधान करना ।

ऐसे मूल प्रमाद पांच, उत्तर प्रमाद पंद्रह, उत्तरोत्तर प्रमाद अस्सी, इनके यथासंभव संख्यादिक पांच प्रकारों का निरूपण किया । (संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समुद्दिष्ट इन पांच प्रकार से प्रमाद का निरूपण किया ।)

अब और प्रमाद की संख्या के विशेष को बताते हैं, वह कहते हैं । स्त्री की वह स्त्रीकथा, धनादिरूप अर्थकथा, खाने की वह भोजनकथा, राजाओं की वह राजकथा, चोर की वह चोरकथा, वैर करानेवाली वह वैरकथा, परायी पाखंडकथा वह परपाखंडकथा, देशादिक की वह देशकथा, कहानी इत्यादि भाषाकथा, गुण रोकनेरूप गुणबंधकथा, देवी की वह देवीकथा, कठोररूप निष्ठुरकथा, दुष्टतारूप परपैशून्यकथा, कामादिरूप कंदर्पकथा, देशकाल में विपरीत वह देशकालानुचितकथा, निर्लज्जतारूप भंडकथा, मूर्खतारूप मूर्खकथा, अपनी बढ़ाईरूप आत्मप्रशंसाकथा, परायी निंदारूप परपरिवादकथा, परायी घृणारूप परजुगुप्साकथा, पर को पीड़ा देनेरूप परपीड़ाकथा, लड़नेरूप कलहकथा, परिग्रहकार्यरूप परिग्रहकथा, खेती आदि के आरंभरूप कृष्याद्यारंभकथा, संगीत वादित्रादिरूप संगीतवादित्रादिकथा - इसतरह विकथा पच्चीस भेदसंयुक्त है ।

पुनश्च सोलह कषाय और नौ नोकषाय के भेद से कषाय पच्चीस हैं । पुनश्च स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन नामधारक इन्द्रिय छह हैं । पुनश्च स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला भेद से निद्रा पांच हैं । पुनश्च स्नेह, मोह भेद से प्रणय दो हैं । इनको परस्पर गुणा करनेपर सैंतीस हजार पांच सौ (३७,५००) प्रमाण होते हैं । ये भी मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रवर्तते हैं । जो बीस प्ररूपणा हैं, उनमें यथासंभव बंध के हेतुपना द्वारा पूर्वोक्त संख्या आदि पांच प्रकार सहित जैनागम से अविरुद्धपने जोड़ना ।

अब प्रमादों के साढ़े सैंतीस हजार भेदों में संख्या, दो प्रकार से प्रस्तार, उन प्रस्तारों की अपेक्षा अक्षसंचार, नष्ट, समुद्दिष्ट पूर्वोक्त विधान से यथासंभव करना ।

पुनश्च गूढ़ यंत्र करने का विधान नहीं कहा, सो गूढ़ यंत्र कैसे होता है ?

इसलिये यहां भाषा में गूढ़ यंत्र का विधान कहते हैं । जिसको जाननेपर, जिसका चाहिये उसका गूढ़ यंत्र कर लीजिये । वहां पहले प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा कहते हैं । जिसका गूढ़ यंत्र करना है, उस विवक्षित के मूलभेद जितने हो, उतनी पंक्तियों का यंत्र करना । वहां उन मूलभेदों में जो अंत का मूलभेद हो उसकी पंक्ति सबसे ऊपर करना । वहां उस मूलभेद के जो उत्तरभेद हो, उतने कोठे करना । उन कोठों में उस मूलभेद के जो उत्तरभेद हो, उन्हें क्रम से लिखना । पुनश्च उन्हीं प्रथमादि कोठों में एक, दो इत्यादि क्रम से एक एक बढ़ते हुये अंक लिखना । पुनश्च उनके नीचे जो अंतिम से पहला उपांत्य मूलभेद हो उसकी पंक्ति करना । वहां उपांत्य मूलभेदों के जितने उत्तरभेद हो उतने कोठे करने । वहां उपांत्य मूलभेदों के उत्तरभेदों को क्रम से लिखना । पुनश्च उन्हीं कोठों में प्रथम कोठे में शून्य लिखना । दूसरे कोठे में ऊपर की पंक्ति के अंतिम कोठे में जो अंक हो, वह लिखना । पुनश्च तृतीयादि कोठों

में दूसरे कोठे में जो अंक लिखा है, उतना उतना ही बढ़ा-बढ़ाकर क्रम से लिखना । पुनश्च उसके नीचे-नीचे उपांत्य से पूर्व का मूलभेद हो उसको आदि करके प्रथम मूलभेद पर्यंत के जो मूलभेद हो, उनकी पंक्तियां करनी । वहां उनके जितने-जितने उत्तरभेद हो, उतने-उतने कोठे करने । पुनश्च उन कोठों में अपने मूलभेद के जो उत्तरभेद हो, वे क्रम से लिखने ।

पुनश्च उन सर्व पंक्तियों के प्रथम कोठों में तो शून्य लिखना, पुनश्च दूसरे कोठे में अपनी पंक्ति के ऊपर की सर्व पंक्तियों के अंतिम कोठों में जितने-जितने का अंक लिखा हो, उनको जोड़कर जो प्रमाण होगा, उतने का अंक लिखना । पुनश्च तृतीयादि कोठों में जितना अंक दूसरे कोठे में लिखा हो उतना उतना ही क्रम से बढ़ा-बढ़ाकर लिखना । इसतरह विधान करना ।

अब द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा कहते हैं । जो विधान प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा लिखा है, वही विधान द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा जानना । विशेष इतना - यहां विवक्षित का जो प्रथम मूलभेद हो, उसकी पंक्ति ऊपर करना । उसके नीचे दूसरे मूलभेद की पंक्ति करनी । इसीतरह नीचे-नीचे अंत के मूलभेद तक पंक्ति करनी ।

पुनश्च वहां जिसतरह अंतिम मूलभेद संबंधी ऊपर की पंक्ति से लगाकर क्रम से वर्णन किया था, उसीप्रकार यहां प्रथम मूलभेद संबंधी पंक्ति से लगाकर क्रम से विधान जानना ।

इसप्रकार साढ़े सैंतीस हजार प्रमाद भंगों का प्रथम विस्तार अपेक्षा गूढ़ यंत्र कहा ।

वहां कोई नष्ट पूछे कि इतनेवां आलाप भंग कौनसा है ?

वहां जिस प्रमाण का आलाप पूछा, वह प्रमाण सर्व पंक्तियों के जिस-जिस कोठे के अंक वा शून्य मिलानेपर हो, उस-उस कोठे में जो जो उत्तरभेद लिखें हैं, उनरूप वह पूछा हुआ आलाप जानना ।

पुनश्च कोई उद्दिष्ट पूछे कि अमुक आलाप कितनेवां है ?

तो वहां पूछे हुये आलाप में जो-जो उत्तर भेद ग्रहण किये हैं, उन-उन उत्तर भेदों के कोठों में जो-जो अंक वा शून्य लिखे हैं, उनको जोड़कर जो प्रमाण होगा, उतनेवां वह पूछा हुआ आलाप जानना । अब इस विधान से साढ़े सैंतीस हजार प्रमाद भंगों का प्रथम प्रस्तार अपेक्षा गूढ़ यंत्र लिखते हैं ।

यहां प्रमाद के मूलभेद पांच हैं, इसलिये पांच पंक्ति करनी । वहां ऊपर प्रणय पंक्ति में दो कोठे करके, वहां स्नेह, मोह लिखे और एक, दो अंक लिखे हैं । उसके नीचे निद्रा पंक्ति के पांच कोठे करके, वहां स्त्यानगृद्धि आदि लिखे हैं और प्रथम कोठे में शून्य लिखा है । द्वितीय कोठे में ऊपर की पंक्ति के अंतिम कोठे में दो अंक था, सो लिखा है । और तृतीयादि कोठों में उतने-उतने ही बढ़ाकर चार, छह, आठ लिखे हैं । पुनश्च उसके नीचे इन्द्रिय पंक्ति के छह कोठे करके, वहां स्पर्शनादि लिखे हैं । और प्रथम कोठे में शून्य, द्वितीय कोठे में ऊपर की दोनों पंक्तियों के अंतिम कोठों को जोड़नेपर दस होते हैं सो लिखा है और तृतीयादि कोठों में वे ही दस दस बढ़ाकर लिखे हैं । और उसके नीचे कषाय पंक्ति में पच्चीस कोठे करके वहां अनंतानुबंधी क्रोधादि लिखे हैं । और प्रथम कोठे में शून्य, दूसरे कोठे में ऊपर की तीन पंक्तियों के अंतिम कोठों का जोड़ साठ लिखकर, तृतीयादि कोठों में उतने-उतने बढ़ाकर लिखे हैं । पुनश्च उसके नीचे विकथा पंक्ति में पच्चीस कोठे करके वहां स्त्रीकथादि लिखे हैं । और प्रथम कोठे में शून्य, द्वितीय कोठे में ऊपर के चारों पंक्तियों के अंतिम कोठों का जोड़ पंद्रह सौ लिखकर, तृतीयादि कोठों में उतने-उतने ही बढ़ाकर लिखे हैं । इसतरह प्रथम प्रस्तार अपेक्षा यंत्र हुआ (देखिए पृ.१०४)

पुनश्च साढ़े सैंतीस हजार प्रमाद भंगों का द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा गूढ़ यंत्र लिखते हैं ।

वहां ऊपर विकथा पंक्ति करके, वहां पच्चीस कोठे करके वहां स्त्रीकथादि लिखे हैं । और एक, दो आदि एक-एक बढ़ता हुआ अंक लिखा है । उसके नीचे-नीचे कषाय पंक्ति और इन्द्रिय पंक्ति और निद्रा पंक्ति और प्रणय पंक्ति में क्रम से पच्चीस, पच्चीस, छह, पांच, दो कोठे करके वहां अपने-अपने उत्तरभेद लिखे हैं । पुनश्च इन सब पंक्तियों के प्रथम कोठों में शून्य लिखे हैं । और दूसरे कोठों में अपनी-अपनी पंक्ति के ऊपर की क्रम से एक, दो, तीन, चार पंक्तियां, उनके अंतिम कोठों संबंधी अंको कों जोड़कर पच्चीस, छह सौ पच्चीस, साढ़े सैंतीस सौ, अठारह हजार सात सौ पचास लिखे हैं । पुनश्च तृतीयादि कोठों में जितने दूसरे कोठों में लिखे उतने-उतने बढ़ाकर क्रम से अंत कोठे तक लिखे हैं । इसतरह द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा यंत्र जानना । (यंत्र के कोठे की विधि और अक्षर अंकादिक कहे हुये विधि के अनुसार क्रम से यंत्र रचना विधि लिखि है ।) इसप्रकार साढ़े सैंतीस हजार प्रमाद

का गूढ़ यंत्र किया । (देखिए पृ.१०५)

वहां प्रथम प्रस्तार अपेक्षा कोई पूछे कि इन भंगों में पैंतीस हजारवां भंग कौनसा है ?

वहां प्रणयपंक्ति का दूसरा कोठा, निद्रापंक्ति का पांचवां कोठा, इन्द्रियपंक्ति का दूसरा कोठा, कषायपंक्ति का नाैवां कोठा, विकथापंक्ति का चौबीसवां कोठा, इन कोठों के अंक जोड़नेपर पैंतीस हजार होते हैं । इसलिये इन कोठों में स्थित उत्तरभेदरूप

मोही-प्रचलायुक्त-रसनाइन्द्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधी-कृष्याद्यारंभकथालापी ऐसा आलाप पैंतीस हजारवां जानना । इसको दृढ़ करने के लिये 'सगमाणेहिं विभत्ते' (गाथा ४१) इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र द्वारा भी इसको साधते हैं । पूछनेवाले ने पैंतीस हजारवां आलाप पूछा, वहां प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा पहले प्रणय का प्रमाण दो का भाग देनेपर साढ़े सत्रह हजार प्राप्त हुये, अवशेष कुछ रहा नहीं । इसलिये यहां अंतिम भेद मोह ग्रहण करना । पुनश्च अवशेष कुछ रहा नहीं इसलिये लब्धराशि में एक नहीं जोड़ना । पुनश्च

उस लब्धराशि को उसके नीचे के निद्रा भेद पांच का भाग देनेपर पैंतीस सौ प्राप्त हुये, यहां भी कुछ अवशेष नहीं रहा, इसलिये अंतिम भेद प्रचला का ग्रहण करना ।

यहां भी लब्धराशि में एक न जोड़ना, उस लब्धराशि को छह इन्द्रिय का भाग देनेपर पांच सौ तिरासी प्राप्त हुए, अवशेष दो रहे, सो यहां दूसरा अक्ष रसनाइन्द्रिय का ग्रहण करना । पुनश्च यहां लब्धराशि में एक जोड़नेपर पांच सौ चौरासी हुये, उसको कषाय पच्चीस का भाग देनेपर तेइस प्राप्त हुये, अवेशष नौ रहे । सो यहां नौवां कषाय प्रत्याख्यान क्रोध का ग्रहण करना । पुनश्च लब्धराशि तेइस में एक जोड़ने पर चौबीस होते हैं, उसको विकथा भेद पच्चीस का भाग देनेपर शून्य प्राप्त हुये, अवशेष चौबीस रहे, सो यहां चौबीसवां विकथा भेद कृष्याद्यारंभ का ग्रहण करना । इसतरह पूछा हुआ पैंतीस हजारवां आलाप मोही-प्रचलायुक्त-रसनाइन्द्रिय के वशीभूत-प्रत्याख्यान क्रोधी-कृष्याद्यारंभकथालापी ऐसा भंगरूप होता है । इसीतरह अन्य नष्ट का साधन करना ।

इसतरह नष्ट का उदाहरण कहा ।

अब उद्दिष्ट को कहते हैं - कोई पूछे कि स्नेही-निद्रायुक्त-मन के वशीभूतअनंतानुबंधी क्रोधयुक्त-मूर्खकथालापी ऐसा आलाप कितनेवां है ?

वहां उत्तरभेद जिन-जिन कोठों में लिखे हैं, उन-उन कोठों के अंक एक, छह, पचास, शून्य, चौबीस हजार मिलानेपर चौबीस हजार सत्तावनावां भेद है, ऐसा कहते हैं । पुनश्च इसी को 'संठाविदूणरूवं' (गाथा ४२) इत्यादि सूत्रोक्त उद्दिष्ट लाने का विधान साधते हैं ।

प्रथम एक रूप स्थापित कर उसको प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा पहले पच्चीस विकथाओं से गुणित करना । और यहां आलाप में मूर्खकथा का ग्रहण है, इसलिये इसके पश्चात् आठ अनंकित स्थान हैं, उनको घटानेपर सत्रह होते हैं । इनको पच्चीस कषायों से गुणित करना और यहां प्रथम कषाय का ग्रहण है, इसलिये उसके पश्चात् चौबीस अनंकित स्थान हैं उन्हें घटाते हैं तब चार सौ एक होते हैं । पुनश्च इनको छह इन्द्रियों से गुणा करना और यहां अंतभेद का ग्रहण है इसलिये अनंकित नहीं घटाना, तब चौबीस सौ छह होते हैं । पुनश्च इन्हें पांच निद्रा से गुणित करना और यहां चौथी निद्रा का ग्रहण है इसलिये इसके पश्चात् एक अनंकित स्थान है, उसको घटानेपर बारह हजार उनतीस होते हैं । इसे दो प्रणय से गुणित करते हैं और यहां प्रथम भेद का ग्रहण है इसलिये इसके पश्चात् एक अनंकित स्थान है उसे घटानेपर चौबीस हजार सत्तावन होते हैं । इसतरह स्नेहवान-निद्रालु-मन के वशीभूत-अनंतानुबंधी

क्रोधयुक्त-मूर्खकथालापी ऐसा पूछा हुआ आलाप चौबीस हजार सत्तावनवां जानना ।

इसीप्रकार अन्य उद्दिष्ट साधना । पुनश्च जिसतरह प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा विधान कहा, उसीप्रकार द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा यथासंभव नष्ट, उद्दिष्ट लाने का विधान जानना । इसतरह प्रमाद भंगों के साढ़े सैंतीस हजार प्रकार जानना ।

पुनश्च इसीप्रकार अठारह हजार शील के भेद, चौरासी लाख उत्तरगुण, मतिज्ञान के भेद वा पाखण्डों के भेद वा जीवाधिकरण के भेद इत्यादिकों में जहां अक्षसंचार द्वारा भेदों का पलटना होता हो, वहां संख्यादिक पांच प्रकार जानना । विशेष इतना, पूर्व में प्रमाद की अपेक्षा कथन किया है । यहां जिसका विवक्षित वर्णन हो, उसकी अपेक्षा सर्व विधान करना । वहां जिसतरह प्रमाद के विकथादि मूलभेद कहे, उसीप्रकार विवक्षित के जितने मूलभेद हो, वे कहना । पुनश्च जिसतरह प्रमाद के मूलभेदों के स्त्रीकथादिक उत्तरभेद कहे हैं, उसीप्रकार विवक्षित के मूलभेद के जो उत्तरभेद होते हैं, वे कहना । पुनश्च जिसप्रकार प्रमादों के आदि-अंतादिरूप मूलभेद ग्रहण करके विधान किया है, उसीप्रकार विवक्षित के जो आदि-अंतादिरूप मूलभेद हो उन्हें ग्रहण करके विधान करना । पुनश्च जिसतरह प्रमाद के मूलभेद-उत्तरभेद का जितना प्रमाण था, उतना ग्रहण किया । उसीप्रकार विवक्षित के मूलभेद-उत्तरभेद का जितना-जितना प्रमाण हो, उतना ग्रहण करना । इत्यादि संभवनेवाले विशेष जानकर संख्या और दो प्रकार प्रस्तार, और उन प्रस्तारों की अपेक्षा अक्षसंचार और नष्ट और समुद्दिष्ट ये पांच प्रकार हैं, वे यथासंभव साधन करना ।

वहां उदाहरण -- तत्त्वार्थसूत्र के षष्ठ अध्याय में जीवाधिकरण के वर्णन स्वरूप ऐसा सूत्र है -

'आद्यंसंरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्रैकशः'
इस सूत्र में संरंभ, समारंभ, आरंभ - ये तीन; और मन, वचन, काय - ये योग तीन; और कृत, कारित, अनुमोदित - ये तीन; और क्रोध, मान, माया, लोभ - ये कषाय चार; इनके एक-एक मूलभेद के एक-एक उत्तरभेद के होनेपर अन्य सर्व मूलभेदों के एक-एक उत्तरभेद होते हैं । इसलिये क्रम से ग्रहण करनेपर, इनके परस्पर गुणा करने से एक सौ आठ भेद होते हैं, सो यह संख्या जानना ।

पुनश्च पहले पहले प्रमाण का विरलन करके उसके एक-एक के ऊपर अगले प्रमाण पिंड को स्थापित करने से, प्रथम प्रस्तार होता है । तथा पहले-पहले प्रमाण पिंड की संख्या को अगले मूलभेद के उत्तरभेद प्रमाण स्थानों में स्थापित कर, उनके ऊपर उन उत्तरभेदों को स्थापित करने से द्वितीय प्रस्तार होता है । (देखिए पृ.१०८)

पुनश्च प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अंत के मूलभेद से लेकर आदि भेद तक और द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा आदि मूलभेद से लेकर अंतभेद तक क्रम से उत्तरभेदों के अंत पर्यंत जा-जाकर पलटने के अनुक्रम सहित उत्तरभेदों के पलटनेरूप अक्षसंचार जानना ।

'सगमाणेहिं विभत्ते' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र द्वारा नष्ट का विधान करते हैं ।

वहां उदाहरण - प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा कोई पूछे कि पचासवां आलाप कौनसा है ?

वहां पचास को पहले चार कषाय का भाग देनेपर, बारह प्राप्त हुये और अवशेष दो रहे, इसलिये दूसरा कषाय मान ग्रहण करना । पुनश्च अवशेष बारह में एक जोड़कर कृत आदि तीन का भाग देनेपर चार प्राप्त हुये, अवशेष एक रहा, इसलिये पहला भेद कृत जानना । पुनश्च प्राप्त हुये चार में एक जोड़कर, योग तीन का भाग देनेपर, एक प्राप्त हुआ, अवशेष दो, इसलिये दूसरा वचनयोग ग्रहण करना । पुनश्च प्राप्त हुये एक में एक जोड़कर संरंभादि तीन का भाग देनेपर कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, अवशेष दो रहे, इसलिये दूसरा भेद समारंभ ग्रहण करना । इसतरह पूछा हुआ आलाप मानकषाय- कृत-वचन-समारंभ ऐसे भेदरूप होता है । इसीतरह अन्य नष्ट साधना ।

पुनश्च 'संठाविदूणरूवं' इत्यादि पूर्वोक्त सूत्र से उद्दिष्ट का विधान करते हैं ।

वहां उदाहरण - प्रश्न – जो माया कषाय-कारित-मन-आरंभ ऐसा आलाप कितनेवां है ?

उत्तर –
वहां प्रथम एक अंक स्थापित करे । प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा से ऊपर से संरंभादि तीन से गुणा करके यहां अंत स्थान का ग्रहण है, इसलिये अनंकित को न घटाते हुये तीन ही हुये । पुनश्च इसे तीन योग से गुणा करके, यहां वचन, काय ये दो अनंकित घटानेपर सात हुये । पुनश्च इसे कृतादि तीन से गुणा करके, अनुोदन अनंकित स्थान घटाने से बीस होते हैं । पुनश्च इसे चार कषाय से गुणा करके, एक लोभ अनंकित स्थान घटाने से उन्नासी होते हैं । इसतरह पूछा हुआ आलाप उन्नासीवां है । इसीतरह अन्य उद्दिष्ट साधना । पुनश्च इसीप्रकार से द्वितीय प्रस्तार अपेक्षा भी नष्ट-उद्दिष्ट समुद्दिष्ट साधना । पुनश्च पूर्व में जो विधान कहा था उसके अनुसार इसका

गूढ़ यंत्र निम्नप्रकार करना ।

प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा से जीवाधिकरण का गूढ़यंत्र -

कृत ०
क्रोध १मान २माया ३लोभ ४
कारित ४अनुमोदित ८मन ०वचन १२काय २४
संरंभ ०समारंभ ३६आरंभ ७२


दूसरे प्रस्तार अपेक्षा से जीवाधिकरण का गूढ़यंत्र -

संरंभ १समारंभ २आरंभ ३
मन ०वचन ३काय ६
कृत ०कारित ९अनुमोदित १८
क्रोध ०मान २७माया ५४लोभ ८१


वहां नष्ट पूछने पर चारों पंक्तियों के जिस-जिस कोठे के अंक मिलानेपर पूछा हुआ प्रमाण मिलेगा, उस-उस कोठे में स्थित भेदरूप आलाप कहना । जैसे, साठवां आलाप पूछे तो चार, आठ, बारह, छत्तीस अंक जोड़नेपर साठ अंक होते हैं, इसलिये इन अंकों से संयुक्त कोठों के भेद ग्रहण करनेपर, लोभ-अनुमोदित-वचन-समारंभ ऐसा आलाप कहते हैं ।

पुनश्च उद्दिष्ट पूछे तो, उस आलाप में कहे हुये भेद संयुक्त कोठों के अंक मिलानेपर जो प्रमाण होता है, उतनेवां आलाप कहना । जैसे, पूछा कि मान-कृतगणु काय-आरंभ कितनेवां आलाप है ? वहां इस आलाप में कहे हुये भेद संयुक्त कोठों के दो, शून्य, चौबीस, बहत्तर ये अंक जोड़नेपर अट्ठानबेवां आलाप है, ऐसा कहना । इसीप्रकार प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा से अन्य नष्ट-समुद्दिष्ट वा दूसरे प्रस्तार की अपेक्षा से नष्ट-समुद्दिष्ट साधना । इसीतरह शीलभेदादि में यथासंभव साधन करना ।

इसप्रकार प्रमत्त गुणस्थान में प्रमाद का भंग कहने का प्रसंग प्राप्त होनेपर संख्यादि पांच प्रकार का वर्णन करके प्रमत्त गुणस्थान का वर्णन समाप्त किया ।