+ अप्रमत्त विरत (सातवां) -
संजलणणोकसायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि
अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥45॥
संजलणणोकसायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि
अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥४५॥
अन्वयार्थ : जब संज्वलन और नोकषाय का मन्द उदय होता है तब सकल संयम से युक्त मुनि के प्रमाद का अभाव हो जाता है । इस ही लिये इस गुणस्थान को अप्रमत्तसंयत कहते हैं । इसके दो भेद हैं - एक स्वस्थानाप्रमत्त दूसरा सातिशयाप्रमत्त ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

संजलणणोकसायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि

अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥४५॥