+ अपूर्वकरण गुणस्थान -
अंतोमुहुत्तकालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं
पडिसमयं सुज्झंतो, अपुव्वकरणं समल्लियइ ॥50॥
अंतर्मुहूर्तकालं गमयित्वा अधःप्रवृत्तकरणं तत् ।
प्रतिसमयं शुध्द्यन् अपूर्वकरणं समाश्रयति ॥५०॥
अन्वयार्थ : जिसका अन्तमुर्हूर्त मात्र काल है, ऐसे अध:प्रवृत्तकरण को बिताकर वह सातिशय अप्रमत्त जब प्रति-समय अनंतगुणी विशुद्धि को लिए हुए अपूर्व-करण जाति के परिणामों को करता है, तब उसको अपूर्वकरण-नामक अष्टम-गुणस्थानवर्ती कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

इसतरह अप्रमत्त गुणस्थान का व्याख्यान करके इसके अनंतर अपूर्वकरण गुणस्थान को कहते हैं -

इसतरह अंतर्मुहूर्तकाल प्रमाण पूर्वोक्त लक्षणधारी अधःप्रवृत्तकरण को समाप्त कर, विशुद्ध संयमी होकर, प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि से वर्धमान होता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थान का आश्रय करता है ।