पज्जत्तस्स य उदये, णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि।
जाव सरीरमपुण्णं, णिव्वात्ति अपुण्णगो ताव॥121॥
अन्वयार्थ : पर्याप्ति नामकर्म के उदय से जीव अपनी पर्याप्तियों से पूर्ण होता है, तथापि जब तक उसकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक उसको पर्याप्त नहीं कहते, किन्तु निर्वृत्त्यपर्याप्त कहते हैं ॥121॥

  जीवतत्त्वप्रदीपिका