उवयरणदंसणेण य, तस्सुवजोगेण मुच्छिदाए य।
लोहस्सुदीरणाए, परिग्गहे जायदे सण्णा॥138॥
अन्वयार्थ : इत्र, भोजन, उत्तम वस्त्र, स्त्री, धन, धान्य आदि भोगोपभोग के साधनभूत बाह्य पदार्थों के देखने से अथवा पहले के भुक्त पदार्थों का स्मरण या उनकी कथा का श्रवण आदि करने से और ममत्व परिणामों के - परिग्रहाद्यर्जन की तीव्र गृद्धि के भाव होने से, एवं लोभकर्म का तीव्र उदय या उदीरणा होने से - इन चार कारणों से परिग्रह संज्ञा उत्पन्न होती है ॥138॥

  जीवतत्त्वप्रदीपिका