जीवतत्त्वप्रदीपिका
एइंदियस्स फुसणं, एक्कं वि य होदि सेसजीवाणं।
होंति कमउह्नियाइं, जिब्भाघाणच्छिसोत्ताइं॥167॥
अन्वयार्थ :
एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। शेष जीवों के क्रम से रसना
(जिह्वा)
, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र बढ़ जाते हैं ॥167॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका