
मणवयणाणपउत्ती, सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु।
तण्णाम होदि तदा, तेहि दु जोगा हु तज्जोगा॥217॥
अन्वयार्थ : सत्य, असत्य, उभय, अनुभय इन चार प्रकार के पदार्थों से जिस पदार्थ को जानने या कहने के लिए जीव के मन, वचन की प्रवृत्ति होती है उस समय में मन और वचन का वही नाम होता है और उसके सम्बंध से उस प्रवृत्ति का भी वही नाम होता है ॥217॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका