
एकेन्द्रियादि जीवों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट आबाधा का जो प्रमाण कहा उसका भाग कर्मों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति को देने पर जो-जो प्रमाण आता है, वह-वह आबाधाकांडक का प्रमाण है । इतने-इतने स्थिति भेदों में आबाधा का प्रमाण एकरूप पाया जाता है । पूर्वोक्त अपने-अपने आबाधा के भेदों के प्रमाण को अपने-अपने आबाधाकांडक के प्रमाण से गुणा करने पर जो-जो प्रमाण आता है, उसमें से एक-एक घटाने पर जो-जो प्रमाण रहता है, उतना-उतना अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से घटाने पर जो-जो प्रमाण रहता है, उतना-उतना जघन्य स्थितिबंध का प्रमाण जानना ॥147॥
अन्वयार्थ : जेट्ठाबाहोवट्टियजेट्ठं आबाहकंडयं तेण ।
आबाहवियप्पहदेणेगूणेणूणजेट्ठमवरठिदी ॥147॥